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भारत विकास परिषद् के 50 वर्ष - भारतीय मूल्यों एवं दर्शन पर आधारित एक सेवा-संस्कार आन्दोलन

k L Gupta

डॉ॰ कन्हैया लाल गुप्ता
बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में देश में अनेकानेक सामाजिक, सेवाभावी एवं सांस्कृतिक संगठनों का उद्भव एवं विकास हुआ। इन संगठनों में, जिस संगठन ने भारतीय दर्शन एवं मूल्यों को केन्द्र बिन्दु मानकर सेवा एवं संस्कारों के विविध पारिवारिक एवं सामाजिक प्रकल्पों को अपने हाथ में लेकर भारत में मानव शक्ति के सम्पूर्ण एवं सर्वांगीण विकास का संकल्प लिया है, जिसने राष्ट्रीय दृष्टिकोण को प्रखर बनाने में अपनी विशिष्ट भूमिका का निर्वहन किया है और जिसने भारतीय जन-मानस में भारतीय संस्कारों के ज्ञान एवं अनुपालन का सरित-प्रवाह करके एक जन-आन्दोलन का सृजन किया है, उस संगठन का नाम है- भारत विकास परिषद्।

व्याख्यात्मक धारणा एवं परिचय:
संगठन का नामकरण तीन शब्दों के संयोग पर आधारित है- ‘भारत’, ‘विकास’ और ‘परिषद्’। भारत का अर्थ मात्र भारत की भौगोलिक सीमाओं से नहीं है, वरन् इसमें विदेशों में रह रहे भारतीय मूल के व्यक्ति भी शामिल हैं। ‘भारत’ शब्द में भारतीय दर्शन, भारतीय संस्कृति, भारतीय कला, भारतीय मूल्य, भारतीय साहित्य और शिक्षा, भारतीय संस्कार इत्यादि विविध भारतीय आयाम शामिल हैं। ‘विकास’ शब्द इन भारतीय आयामों के प्रचार, संरक्षण एवं सम्वर्द्धन से जुड़ा है। विकास का अर्थ ‘प्रस्फुटीकरण’(Unfoldment) भी होता है, जिसका सन्दर्भ प्रत्येक व्यक्ति में विद्यमान देवत्व गुणों को बाहर लाकर समाज के विकास में उसके सदुपयोग के लिये प्रेरणा एवं वातावरण का सृजन करना है। डॉ॰ एल॰एम॰ सिंघवी के शब्दों में भारत के विकास का अर्थ है ‘‘भारतीयता का विकास’’, भारतीय मनीशा और मानवता का उन्मेश, भारतीय मूल्यों और परम्पराओं का उत्कर्ष, भारतीय संवेदना का विस्तार, भारत के जनगण की जीवन शैली में पुरातन एवं अधुनातम का समन्वय, भारतीय ऊर्जा की अभिव्यक्ति और व्यक्ति की गरिमा तथा देश की एकता की सुरक्षा। यह महत्वपूर्ण है कि संगठन एक ‘क्लब’ नहीं परिषद् है। परिषद् की धारणा गम्भीर विचार विमर्श, अनुशासन, तार्किक निर्णय, नियमबद्धता और वैचारिक क्रान्ति जैसे पहलुओं से जुड़ी है। संक्षेप में परिषद् सेवा की गंगा है जिसमें स्नान करोगे तो तर जाओगे; यह संस्कारों का मन्दिर है जिसमें पूजा करोगे तो निखर जाओगे, यह सम्पर्क, सहयोग और समर्पण की बगिया है, जिसमें टहलोगे तो महक जाओगे। यह कोई क्लब नहीं है, जिसमें जाने-अनजाने बहक जाओगे।’’

परिषद् की स्थापना की पृष्ठभूमि:
अक्टूबर 1962 में जब चीन ने भारत पर आक्रमण किया तो भारत की सेनाओं के पास उचित रूप से मुकाबला करने के लिये न तो हथियार और न हिमालय की भयंकर शीत में शरीर ढकने के लिये पर्याप्त वस्त्र थे। संयुक्त राष्ट्र संघ ने चीन के इस आक्रमण से भारतीय सीमा की रक्षा हेतु एक टास्कफोर्स (Task Force) का गठन किया। लोगों के हृदय में उस सेना के प्रति स्वाभाविक कृतज्ञता का भाव जागृत हो उठा। दिल्ली के अशोका होटल में जनरल के॰ एस॰ करियप्पा और लाला हंसराज गुप्ता ने नेतृत्व में लगभग 400 प्रबुद्ध एवं सम्भ्रान्त लोगों के साथ टास्कफोर्स का स्वागत एवं अभिनन्दन किया गया। इस कार्यक्रम से उत्साहित होकर डॉ॰ सूरज प्रकाश ने दिल्ली में एक ‘सिटिजन कौंसिल’ या जनमंच की स्थापना की।

12 जनवरी 1963 को स्वामी विवेकानन्द की जन्म शताब्दी समारोह ने भारतीयों में पुनः नवजीवन का संचार किया क्योंकि उस संन्यासी ने अकेले ही भारतीय संस्कृति, भारतीय धर्म और भारतीय गौरव की ध्वजा को पूरे विश्व में लहराया था। इस समारोह के अवसर पर ‘सिटिजन कौंसिल’ का नया नामकरण ‘भारत विकास परिषद्’ किया गया। स्पष्ट है कि इस परिषद् की परिकल्पना समाज के कुछ प्रबुद्ध, प्रतिष्ठित तथा राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत व्यक्तियों के अनुकरणीय आचार-विचारों का जीवन्त एवं व्यावहारिक परिणाम है, जिन्होंने व्यापक सम्पर्क, संस्कारयुक्त समाज, निर्विकार सेवा और निश्चल समर्पण के सूत्रों को आत्मसात् करते हुए वर्ष 1963 में दिल्ली में इसकी स्थापना की। डॉ॰ एल॰एम॰ सिंघवी ने एक संदेश में लिखा था कि ‘भारत विकास परिषद् हमारी अस्मिता की और हमारे उन्मेश की तीर्थयात्रा का पर्याय है। मैंने भारत विकास परिषद् को एक प्रयोजनशील सम्पर्क, सहृदय सहयोग, आधारभूत संस्कार, सहानुभूति और करुणा से प्रेरित सेवा एवं निष्ठा से अभिमण्डित समर्पण की तीर्थयात्रा के रूप में संकल्पित किया था।’

परिषद् का प्रारम्भिक गठन:
यद्यपि परिषद् की संकल्पना 12 जनवरी 1963 को हो गयी थी लेकिन इसको साकार रूप 10 जुलाई 1963 को मिला, जब इसके पंजीयन का प्रमाण पत्र मिला और उसी दिन कनाट प्लेस स्थित मरीना होटल में इसकी प्रथम बैठक आयोजित की गयी। इसके प्रथम मुख्य संरक्षक का भार सर्वोच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त मुख्य न्यायाधीश एवं प्रसिद्ध विचारक श्री वी॰पी॰ सिन्हा को सौंपा गया। इसके प्रथम अध्यक्ष महान् राष्ट्रवादी एवं दिल्ली के भूतपूर्व महापौर लाला हंसराज गुप्ता एवं प्रथम महामंत्री सेवाभावी सुप्रसिद्ध चिकित्सक डॉ॰ सूरज प्रकाश बने। भारत माता को आराध्य और स्वामी विवेकानन्द को पथ प्रदर्शक स्वीकार किया गया। ‘वन्दे मातरम्’ को प्रारम्भिक प्रार्थना और राष्ट्रगान ‘जनगणमन’ को समाप्त गीत का स्थान दिया गया। परिषद् के आयोजन में मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए डॉ॰ एल॰एम॰ सिंघवी ने आह्वान किया था कि ‘राजधानी की एक अट्टालिका की छत पर बैठकर प्रीतिभोज के पश्चात् सभा विसर्जित कर देने में भारत का विकस कैसे सार्थक और अग्रगामी हो। …………..भारत के विकास की तीर्थयात्रा में समूचे भारत के सपनों और संकल्पों को जोड़ना होगा। भारत विकास परिषद् को भारत व्यापी बनाना होगा, सम्पर्क के स्रोत से भारतीय जनशक्ति की गंगा को समर्पण तक ले जाने के लिये भारत विकास परिषद् को भागीरथ बन कर समर्पित अभियान और आन्दोलन का अश्वमेध यज्ञ करना होगा। बस यहीं से प्रारम्भ हो गयी दिल्ली की गंगोत्री से परिषद् की शाखाओं का प्रवाह और 1968 में दिल्ली से बाहर परिषद् की प्रथम शाखा देहरादून (उत्तराखण्ड) में स्थापित की गई और आज कश्मीर से कन्याकुमारी तक तथा गुजरात से असम तक पूरे देश में परिषद् सेवा और संस्कार प्रकल्पों का संचालन करने वाली गैर-सरकारी संगठन के रूप में प्रतिष्ठित रूप से अधिष्ठापित हो चुकी है।

परिषद् प्रगति का प्रथम दशक (1963-1973):
परिषद् का प्रथम दशक परिषद् के दर्शन को सुदृढ़ करने और इसकी आधारशिला को सुदृढ़ करने की अवधि रही, जिसमें राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में सतत् रूप से लाला हंसराज गुप्ता का सबल नेतृत्व और दूरदर्शी मार्गदर्शन प्राप्त हुआ। यद्यपि इस अवधि में शाखाओं की संख्या एक से बढ़कर मात्र 10 और सदस्यों की संख्या 101 से बढ़कर 500 तक पहुँच पायी लेकिन इस अवधि में सन् 1967 में परिषद् के प्रथम और अति लोकप्रिय संस्कार प्रकल्प राष्ट्रीय समूहगान प्रतियोगिता का शुभारम्भ हुआ। सन् 1969 में परिषद् के मुख पत्र ‘नीति’ के प्रकाशन कार्य का श्री गणेश हुआ तथा परिषद् के दिशाबोध के प्रथम स्थायी स्तम्भ के रूप में सन् 1973 में दिल्ली में मिन्टो रोड के निकट छत्रपति महाराज शिवाजी की विशाल मूर्ति स्थापित की गयी। मूर्ति का अनावरण तत्कालीन राष्ट्रपति श्री वी॰वी॰ गिरि द्वारा किया गया।

परिषद् प्रगति का दूसरा दशक (1973-1983):
परिषद् प्रगति के इस दशक का शुभारम्भ प्रसिद्ध न्यायविद् एवं संविधान मर्मज्ञ डॉ॰ लक्ष्मीमल्ल सिंघवी द्वारा अप्रैल 1973 में परिषद् के अध्यक्ष पद को अलंकृत करने से हुआ। पूरे दशक में उनका सुविचारित मार्गदर्शन परिषद् को मिला। इस अवधि में परिषद् के सदस्यों के संकल्प की रचना की गयी, संस्था के लक्ष्य और आदर्शों के आधार पर ज्ञान के प्रतीक उगते हुय सूरज और समृद्धि के प्रतीक खिलते कमल को मिलाकर परिषद् के प्रतीक चिह्न का सृजन किया गया। वर्ष 1978 में परिषद् का पहला अखिल भारतीय अधिवेशन दिल्ली में आयोजित हुआ तथा राष्ट्रीय महामंत्री डॉ॰ सूरज प्रकाश जी के साथ शाखा विस्तार में श्री पी॰एल॰ राही को भी विशिष्ट भूमिका दी गयी। 1982 तक परिषद् की शाखाओं की संख्या 30 तक पहुँच गयी। संगठन को सुदृढ़ करने के लिये एक राष्ट्रीय शासी मण्डल का गठन किया गया तथा परिषद् की गूँज उत्तर भारत से फैलकर दक्षिण भारत तक पहुँच गयी, जब राष्ट्रीय अधिवेशन 1982 में कोचीन में और 1983 में हैदराबाद में आयोजित किये गये।

परिषद् प्रगति का तीसरा दशक (1983-1993):
इस दशक के प्रारम्भ में परिषद् विकास की स्वयं-स्फूर्ति अवस्था में आ गयी थी। सन् 1985 में अध्यक्षीय नेतृत्व डॉ॰ एल॰एम॰ सिंघवी के ब्रिटेन में उच्चायुक्त बन जाने के कारण न्याय-प्रियता एवं निर्भीकता के लिये पूरे विश्व में विख्यात सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश रह चुके न्यायमूर्ति हंसराज खन्ना के सक्षम हाथों में आ गया। इस अवधि से परिषद् के चतुर्मुखी विकास एवं विस्तार की कहानी प्रारम्भ होती है। जबकि 1983-84 में शाखाओं की संख्या 39 से बढ़कर 1993-94 में 286 हो गयी और इनमें सदस्यों की संख्या 1,560 से बढ़कर 11,440 पर पहुँच गयी। इसी अवधि में सुप्रसिद्ध कवयित्री महादेवी वर्मा परिषद् के संरक्षक के रूप में जुड़ीं। परिषद् की कार्य व्यवस्था को सुगठित रूप से संचालित करने के लिये परिषद् के प्रथम चार मूल मंत्र-सम्पर्क, सहयोग, संस्कार और सेवा की संकल्पना करके उनके अतिरिक्त विभिन्न प्रकल्पों को जोड़ा गया। कार्यकर्त्ताओं एवं पदाधिकारियों को परिषद् की कार्यपद्धति में दक्ष करने के लिये कार्यशालाओं के आयोजन का शुभारम्भ किया गया। दक्षिण भारत के प्रमुख शहरों विशाखापट्टनम, विजयवाड़ा और हैदराबाद में परिषद् की शाखाओं की स्थापना की गयी। 1986 में जनसम्पर्क के एक विशिष्ट प्रकल्प संस्कृति सप्ताह का श्री गणेश किया गया। 1988 में ‘नीति’ पत्रिका का प्रकाशन मासिक किया गया। 1988 में ही परिषद् की स्थापना के 25 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष में दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में रजत जयन्ती वर्ष का भव्य आयोजन किया गया। वर्ष 1990 में परिषद् का स्वयं का पहला विकलांग सहायता केन्द्र दिल्ली में दिलशाद गार्डन में स्थापित किया गया।

परिषद्-प्रगति के इस दशक में पूरे देश में परिषद् की अपनी एक विशिष्ट पहचान बनी, लेकिन इसी अवधि में परिषद् को दो अपूर्णनीय क्षति हुई। इसके संस्थापक राष्ट्रीय अध्यक्ष लाला हंसराज गुप्ता 3 जुलाई 1985 को और लगभग तीन दशकों तक परिषद् के क्रियाकलापों के सक्रिय संचालक तथा परिषद् के संस्थापक राष्ट्रीय महामंत्री डॉ॰ सूरज प्रकाश जी 2 फरवरी 1991 को देवालीन हो गये। फरवरी 1991 में श्री पी॰एल॰ राही ने राष्ट्रीय महामंत्री का कार्यभार स्वीकार किया तथा परिषद् विस्तार को और अधिक संगठित, व्यवस्थित एवं तीव्र करने का संकल्प लिया। सन् 1992 में कर्नाटक के पूर्व राज्यपाल श्री गोविन्द नारायण तथा जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल श्री जगमोहन जैसे अति-प्रतिष्ठित व्यक्तित्व राष्ट्रीय उपाध्यक्षों के रूप में परिषद् की गरिमामयी गाथा से जुड़ गये। 1992 में ही कनाडा में परिषद् की प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय शाखा की स्थापना हुई।

परिषद् प्रगति का चैथा दशक (1993-2003)
इस दशक के प्रारम्भ से ही परिषद् प्रगति का कारवाँ देश के लगभग सभी भागों में तेजी से बढ़ने लगा। इस अवधि में राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में न्यायमूृर्ति हंसराज खन्ना (मार्च 2000 तक), न्यायमूर्ति एम॰ रामा जॉयस (अप्रैल 2000 से फरवरी 2003 तक) तथा न्यायमूर्ति जितेन्द्रवीर गुप्ता (फरवरी 2003 से अक्टूबर 2003 तक) का नेतृत्व मिला तो राष्ट्रीय महामंत्री के रूप में मार्च 2000 तक श्री पी॰एल॰ राही ने परिषद् के तीव्र विस्तार और अप्रैल 2000 से श्री आर॰पी॰ शर्मा ने परिषद् के सुगठित संगठन प्रारूप के द्वारा परिषद् कार्यकलापों को प्रभावी और प्रतिष्ठित स्वरूप प्रदान किया। प्रारम्भ में परिषद् को 5 क्षेत्रों के स्थान पर 9 क्षेत्रों में और वर्ष 2001 में 9 के स्थान पर 13 क्षेत्रों में पुनः संगठित किया गया।

परिषद् प्रगति के इस दशक में सेवा और संस्कार के अनेक नये प्रकल्पों का सृजन और पुराने प्रकल्पों का विस्तार हुआ। राष्ट्रीय समूहगान की बढ़ती लोकप्रियता को ध्यान में रखकर 1994 में ‘चेतना के स्वर’ पुस्तिका का प्रकाशन किया गया। इस अवधि में विकलांग पुनर्वास केन्द्रों के कार्यों का विस्तार किया गया, गुरु तेगबहादुर फाउण्डेशन की स्थापना की गयी, वनवासी कल्याण योजना को प्रभावी बनाया, सेवा निवृत्त व्यक्तियों के अनुभव और ऊर्जा का लाभ उठाने के लिये विकास समर्पित योजना प्रारम्भ की गयी, वन्दे मातरम् प्रतियोगिता शुरू की गई तथा वर्ष 2001-02 में ‘भारत को जानो’ प्रतियोगिता एवं गुरुवंदन छात्र अभिनन्दन को राष्ट्रीय प्रकल्पों के रूप में स्वीकार किया गया। बाल, युवा और परिवार संस्कार शिविरों की शृंखला व्यापक की गई। गुजरात में चलने वाली ‘समुत्कर्ष’ संस्था का भारत विकास परिषद् में विलय हो गया।

वर्ष 1998 में परिषद् के मूल मंत्रों में पाँचवाँ मन्त्र ‘समर्पण’ जोड़ा गया। इसी अवधि में पश्चिम बंगाल, असम, गोवा जैसे दूरस्थ स्थानों पर भी परिषद् का कार्य प्रारम्भ हुआ। वर्ष 2001 में कनाडा के जिन्दल फाउण्डेशन के सहयोग से समग्र ग्राम विकास योजना का श्रीगणेश हुआ।

इस दशक की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि दिल्ली के पीतमपुरा में 8 अक्टूबर 1997 को केन्द्रीय भवन का शिलान्यास और 2000 में इस भवन का उद्घाटन था जो आज दुमंजिले सुव्यवस्थित एवं सुसज्जित भवन के रूप में देश भर में परिषद् के क्रियाकलापों का नियोजन, निर्देशन एवं समन्वय कर परिषद् की कार्य पद्धति में केन्द्रीय गतिवर्द्धक बन गया है।

परिषद् प्रगति का पाँचवाँ दशक (2003-2013):
परिषद् के स्वर्ण जयन्ती वर्ष पर पूर्ण होने वाला परिषद् प्रगति का पाचवाँ दशक इसकी सदस्य संख्या में तीव्र विस्तार का साक्षी है। वर्ष 2003-04 में 768 शाखाएँ और 29,862 दम्पत्ति सदस्यता थी, जो 2011-12 में बढ़कर क्रमशः 1,147 तथा 50,127 हो गयी। राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में न्यायमूर्ति एस॰ पर्वता राव (नवम्बर 2003 से मार्च 2004), न्यायमूर्ति डी॰ आर॰ धानुका (2004-2008) तथा श्री आर॰पी॰ शर्मा (2008-12) का मार्गदर्शन मिला तो राष्ट्रीय महामंत्री के रूप में श्री आर॰पी॰ शर्मा (मार्च 2004 तक), श्री आई॰डी॰ ओझा (2004-08) तक तथा श्री वीरन्द्र सभ्भरवाल (2008-2010) ने परिषद् की विकास की गति को तीव्र तथा विस्तार की दिशा को चतुर्मुखी बनाने में अपना सक्रिय योगदान दिया। अप्रैल 2012 से न्यायमूर्ति वी॰एस॰ कोकजे अध्यक्ष के रूप में तथा अप्रैल 2010 से श्री एस॰के॰ वधवा राष्ट्रीय महामंत्री के रूप में परिषद् के स्वर्णिम लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये सतत् प्रयासरत हैं, जिसमें अप्रैल 2012 से राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में प्रो॰ एस॰पी॰ तिवारी और अप्रैल 2010 से राष्ट्रीय वित्त मंत्री के रूप में डॉ॰ के॰एल॰ गुप्ता निर्वाचित सहयोगी के रूप में योगदान दे रहे हैं।

इस दशक में जिन्दल फाउण्डेशन के सहयोग से चल रहे ग्रामों की एकीकृत विकास योजना को विशिष्ट गति मिली और अब तक देश के विभिन्न भागों में 16 गाँव विकसित किये जा चुके हैं। प्राकृतिक आपदा के समय तुरन्त वित्तीय सहायता उपलब्ध कराने के लिये कॉर्पस कोष (Corpus Fund) बनाने के लिये ‘विकास मित्र’ योजना प्रारम्भ की गई, जिसमें बाद में ‘विकास रत्न’ योजना को जोड़ा गया। दोनों ही योजनाओं को परिषद् के सदस्यों का पूर्ण सहयोग मिला। वर्ष 2011-12 से इस फण्ड के आधार पर स्थायी प्रकल्पों के लिये मशीनों एवं उपकरण क्रय करने हेतु केन्द्र से वित्तीय सहायता प्रदान करने की योजना प्रारम्भ की गयी है।

वर्ष 2004 में वैचारिक मंथन से जुड़ी पत्रिका ‘ज्ञान प्रभा’ का प्रकाशन प्रारम्भ किया गया, 2006 में संस्कृत समूहगान एवं लोकगीत प्रतियोगिता को राष्ट्रीय स्तर पर शुरू किया गया। 2007 में परिषद् के मिशन के रूप में ‘स्वस्थ, समर्थ और संस्कारित भारत’ की संकल्पना को स्वीकार किया गया। वर्ष 2007-08 से परिषद् के संस्थापक राष्ट्रीय महामंत्री डॉ॰ सूरज प्रकाश की स्मृति में ‘उत्कृष्टता सम्मान’ योजना का श्रीगणेश किया गया। परिषद् में महिला सहभागिता को सशक्त बनाने के लिये वर्ष 2011 से राष्ट्रीय स्तर पर महिला सहभागिता एवं कार्यकर्त्ता प्रशिक्षण कार्यशालाओं का आयोजन शुरू किया गया। प्रगति के इस दशक में परिषद् साहित्य के प्रकाशन में उल्लेखनीय प्रगति हुई तथा सम्पर्क की आधुनिक तकनीक के रूप में परिषद् की अति-विस्तृत वेबसाइट बनायी गयी। देश में स्थायी प्रकल्पों की संख्या भी 1,457 तक पहुँच गयी है।

स्वामी विवेकानन्द के उत्तरशताब्दी जयन्ती वर्ष के उपलक्ष में 12 जनवरी 2012 को परिषद् के केन्द्रीय भवन में स्वामी विवेकानन्द की भव्य प्रतिमा को अधिष्ठापित किया गया और देश भर में शाखाओं से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक अनेकानेक कार्यक्रम आयोजित किये गये। 10 जुलाई 2013 को परिषद् अपनी स्थापना के 50 वर्ष पूर्ण कर लेगी और 2013 का वर्ष स्वर्ण जयन्ती वर्ष के रूप में सभी स्तरों पर परिषद् की विशिष्ट उपलब्धियों, स्थायी प्रकल्पों और अनेकानेक कार्यक्रमों के आयोजनों का साक्षी सिद्ध होगा।

कुल मिलाकर यह परिषद् सुसंस्कृत, संभ्रान्त तथा प्रतिष्ठित देशव्यापी संगठन के नाते गत पचास वर्षों से सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्तर पर निरन्तर एवं प्रगतिशील संगठ के रूप में कार्य कर रहा है। इसकी पहचान केवल सांस्कृतिक धरातल पर ही नहीं वरन् सेवा के क्षेत्र में भी है। प्राकृतिक आपदाओं और राष्ट्रीय चुनौतियों के समय भी यह संगठन अपने उत्तरदायित्वों की कसौटी पर खरा उतरा है। संभवतः अन्य समाज सेवी क्लबों की तुलना में परिषद् की भौतिक साधन सम्पन्नता कुछ कम हो सकती है, लेकिन इसके पास सेवाभावी, समर्पित, कर्तव्यनिष्ठ और भारतीय संस्कृति के प्रति संवेदनशील मानवीय संसाधन की एक अमूल्य निधि है, जिससे चिन्तन, दर्शन, प्रकल्प एवं कार्यक्रम सभी स्तरों पर परिषद् का भव्य रूप निखर रहा है, उसकी प्रतिष्ठा समाज में सहज रूप से बढ़ रही है। और निश्चित् ही इस दशक में और आगे आने वाली अवधि में यह संगठन अपने क्रियाकलापों से भारत को वैचारिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक क्षेत्रों में नवीनतम ऊँचाईयों का कीर्तिमान स्थापित करने में महत्वपूर्ण योगदान प्रदान करने वाला सांस्कृतिक एवं सेवाभावी संगठन सिद्ध होगा तथा ‘स्वस्थ, समर्थ, समृद्ध एवं संस्कारित भारत’ की परिकल्पना को पूर्ण करने में मील का पत्थर बनेगा।

(Niti: Jul., 2013)

भारत विकास परिषद्

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डा॰ लक्ष्मीमल्ल सिंघवी 
हम सबके लिए भारत विकास परिषद् एक स्वप्न भी है और स्वप्न का आकार भी। यह एक संस्था भी है और आन्दोलन भी। यह संस्था भारतीय दृष्टि से उपजा हुआ,सम्पर्क से अभिसिंचित, सहयोग के हाथें से निर्मित, संस्कार के हृदय से स्पन्दित, सेवा की अंजुरी में समर्पण का नैवेद्य है। स्मृतियों के वातायन से देखता हूँ तो आज से लगभग 40 वर्ष पूर्व की एक संध्या समय की परत मेरे आँखों के सामने उभरती है 

लाला  हंसराज जी ने मुझे एक प्रीतिभोज में मुख्य अतिथि मनोनीत किया और कहा कि मुझे इस संस्था को दिशा बोध देना है। तब मैं एक निर्दलीय सासंद (सदस्य, तीसरी लोक सभा) था।  लाला जी और मेरे बीच प्रगाढ़ स्नेह संबंध था। भारतीय संस्कृति के प्रति मेरी आस्था और प्रतिबद्धता ही उस संबंध का अंकुर और उत्स था। मैंने गंभीर और परिहास के मिश्रित लहजे में आदरणीय  लाला जी को उस संध्या में पूछा कि मधुरता से अपना भाषण परोसूँ या कुछ सा़फगोई भी। ठहाका लगाकर लाला हंसराज जी ने कहा, केवल मीठा खाकर भोजन का आनन्द कैसे मिलेगा। तब मैंने अपने भाषण में भारतीय संस्कृति और विकास के अनेकानेक आयामों की चर्चा करने के बाद उपसंहार में कहा कि आप इसे अन्यथा न लें तो मैं कहना चाहूँगा कि राजधानी की एक अट्टालिका की छत्त पर बैठ कर, प्रीतिभोज के बाद, सभा विसर्जीत कर देने में भारत और भारत का विकास कैसे सार्थक और अग्रगामी होगा। मैंने तब लाला जी एवं डा॰ सूरज प्रकाश जी की तरफ मुखातिब होकर कहा कि भारत के विकास की तीर्थयात्रा में समूचे भारत के सपनों और संकल्पों को जोड़ना होगा, भारत विकास परिषद् को भारतव्यापी बनाना होगा, सम्पर्क के स्रोत से भारतीय जनशक्ति की गंगा को समर्पण तक ले जाने के लिए भारत विकास परिषद् को भगीरथ बन कर समर्पित अभियान और आन्दोलन का अश्वमेघ यज्ञ करना होगा। मुझे अब भी याद है, मैंने इस संध्या में कविवर जयशंकर प्रसाद की इन पंक्तियों को सुनाकर अपने वक्तव्य को विराम दिया थाः-
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से,
प्रबुद्ध शुद्ध भारती,
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला,
स्वतंत्रता पुकारती,
अमर्त्य वीर पुत्र हो।
बढ़े चलो, बढ़े चलो।।  

लाला हंसराज जी उठ खड़े हुए, मुझे स्नेहातिरेक से आलिंगन किया और कहा, अब आपने हमें नई दिशा दी है, तो नया विधान भी बनाइए और इस नये राष्ट्रीय प्रवर्तन की बागडोर संभालिए। भाई डा॰ सूरज प्रकाश गद्-गद् होकर बोले, हम आज ही संकल्प लेते हैं कि आप का यह सपना साकार करेंगे। और फिर तत्काल पूछा, बताइए मैं कल कब आपके पास आऊँ। 

उस दिन के बाद डा॰ सूरज प्रकाश जी से एवं अन्य प्रारंभिक भारत विकास पार्षदों से मेरे जो अन्तरंग संबंध बने, जिस प्रकार वो मुझे भारत विकास परिषद् के हर तार में धागों की तरह बुनते गये, जिस प्रकार भारत विकास परिषद् से मेरा एकात्म भाव संवर्धित होता रहा, वह मेरे जीवन में एक सार्थक आत्मीयता की अविस्मरणीय कथा है। डा॰ सूरज प्रकाश जी के अद्वितीय कर्मयोग के पद्चिन्हों का अनुसरण किया है सभी कार्यकर्ताओं ने, किन्तु प्यारे लाल राही जी की निष्ठा ने परिषद् के लिए नई राहें, नए राजपथ ओर जनपथ निर्माण किए। स्व॰ श्री न्यायमूर्ति देश पांडे, हमारे आदरणीय श्री जस्टिस हंसराज खन्ना एवं श्री जस्टिस रामा जायस ने सक्षम मार्ग दर्शन किया। 

सात वर्ष मैं विदेश में रहा, भारत के राजदूत के रूप में भारत की संस्कृति और उसके विकास की दृष्टि को अभिव्यक्ति देता रहा। इस पूरे समय में भारत विकास परिषद् की स्मृतियाँ मेरे हृदय में धड़कन की तरह प्रतिपल मेरे साथ रही। मैं ब्रिटेन से लौट कर स्वदेश आया तो भारत विकास परिषद् के विराट्, सुविशाल, भारतव्यापी विस्तार को देखकर विस्मित और उल्लासित हुआ। मैं कृतज्ञता और हर्ष का अनुभव करता हूँ कि विदेशों में एवं भारत के नगर-नगर में आज भारत के सर्वतोमुखी विकास के पवित्र मंत्र की मधुरिम रागिनी सुनाई दे रही है। लगता है भारत के विकास की समग्र दृष्टि एक प्रेरक ऋचा की तरह हमारी राष्ट्रीय चेतना को जोड़ते हुए, जगाते हुए, ‘‘संगच्छध्वम् संवदध्वम् सं वो मनांसि जानताम्’’ का अमृत पाथेय लिए एक नई संचेतना की सृष्टि करने को उद्यत है। इस दृष्टि और उपक्रम का नाम है भारत विकास परिषद्। सम्पर्क से सहयोग, सहयोग से संस्कार, संस्कार से सेवा और सेवा से समर्पण की तीर्थयात्रा का नाम है भारत विकास परिषद्। जो भारत के स्वर्णिम अतीत को हीरक भविष्य के साथ जोड़ने का सेतु-निर्माण करने के लिए कृतशपथ है, उसका नाम है भारत विकास परिषद्।

भारत विकास परिषद् का व्यापक क्षितिज

महादेवी, प्रयाग, 3 अप्रैल, 1985
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“भारत विकास परिषद् का क्षितिज इतना व्यापक है कि उसके विकास को एक आयाम में बाँधना कठिन होगा। भारत एक भौगोलिक इकाई है, अत: उसके हिमाच्छादित शिखर, नदी, निर्झर, बन-सम्पत्ति आदि से सौन्दर्य को सुरक्षित रखना भी विकास का कार्य है। उसमें बसने वाले मानव समूह के बुद्धि-हृदय का ऐसा परिष्कार करना कि वह `वसुधैव कुटुम्बकम्´ की भावना को आत्म सात कर सके भी भारत विकास का आयाम है। उसमें सुविधा सम्पन्न ग्राम नगर आदि की स्थापना करना, साहित्य, कला, शिक्षा आदि का विकास करना भी भारत की सेवा है।
उसमें निवास करने वाले मानवों में राष्ट्र चेतना जागृत करना और सत्य, अहिंसा, समता, बन्धुता आदि जीवन मूल्यों की आस्था सम्पन्न करना भी भारत का विकास है। पर इन सबके लिए जो अनिवार्य गुण है, वह दृढ़ संकल्प है, जिसके अभाव में कोई कार्य सम्भव नहीं है। और यह संकल्प सम्पूर्ण जीवनी-शक्ति चाहता है। वह संकल्प इसके सदस्यों को प्राप्त हो, यह शुभ कामना है। शुभास्ते पन्थान: सन्तु!”

Bharat Vikas Parishad and Other Social Cultural Organisations

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Dr. Suraj Prakash
The June 1989 issue of Niti carried an article in Hindi on this subject by Dr. Suraj Prakash, Secretary General, Bharat Vikas Parishad, which gives an excellent exposition of the Parishad vis a vis other socio-cultural organisations like the Rotary and the Lions and contains some valuable guidelines for members and office-bearers of Parishad.  English version of the same is given hereunder. 

 

Bharat Vikas Parishad is a non political, socio-cultural service organisation of the elite among the citizens. There are other social organisations of the elite also functioning like the Rotary and the Lions. A member of the Rotary Club cannot become a member of the Lions and vice versa, but no such restriction applies to the membership of the Bharat Vikas Parishad, because it is basically different from the other socio-cultural clubs.

Primarily, Bharat Vikas Parishad is not a ‘Club’. It is a ‘Council’ of the elite, intellectuals and well to do, who have dedicated themselves to the service of the poor, disabled, illiterate and the ignorant by gradually developing in them a sense of responsibility and self confidence which is really the concept of our service to the needy.

The Rotary and other international organisations were born outside India and they generally draw inspiration from sources which are alien. They carry a deep stamp of an alien culture, which has also affected their thinking and activities. The ultimate control of those organsations lies in the hands of people outside India. A big proportion of the funds raised by these organisations goes to foreign lands and is spent at the discretion of the foreigners. A very small proportion of these funds is available for the benefit of people in this country. Outwardly, these clubs have adoped the local and national garb, local language are used and the National Anthem is also sung, yet a feeling of cultural inferiority and subjugation to the tinsel world of the West persists and is discernible all along. On the contrary, Bharat Vikas Parishad is wholly and totally an indigenous organisation, which is intensely nationalistic is outlook. It was conceived and born in India and it draws inspiration from Indian culture and Indian values, for the protection and propagation of which it has been established.

In Bharat Vikas Parishad women have a significant role to play. It is fully conscious of its responsibility for the comprehensive and multifaced development of the society. This cannot be achieved unless it is able to carry along with it the women force of India, who constitute half of our population. Therefore, women enjoy equal status and eligibility for membership in our consitution. In fact, membership is granted not to an individual male or female but jointly to the couple.

The main distinction, however, lies in our ideals, our philosophy, aims, objectives, activities and finally in our way of thinking. The aim of the clubs is essentially social get together and eating and entertainment are naturally integral to it. The Parishad also appreciates the importance of fellowship, without which contact (Sampark) and cooperation (Sahyog) are not possible. But fellowhip in the Parishad is only a means to an end and not the end itself. Therefore, only so much stress need be laid on fellowship as may be necessary to reach out, create contacts and secure cooperation.

Social service is the aim of both the Parishad and the clubs, but the definition of ‘Service’ is different. Service in Bharat Vikas Parishads denotes working for the total development of the country, protection of the national culture and heritage, revival and propagation of our cultural and moral values and national reconstruction in the light of these values. Naturally, the Parishad should take up such programmes which are likely to have a deep impact on society and country and for the success of its programmes the very mentality of our people needs to be changed. Every programme of the Parishad should aim at bringing about a change in the thinking of people and in this respect it is an idealistic missionary organisation, whose mission needs to be understood properly. Compared to it the social service rendered by the clubs is merely a cosmetic affair which has no deep impact on society. Such superficial service may give a feeling of self-satisfaction to those who are enabled to spend a fraction of their immense wealth in the name of public services, but their real objective is self publicity and self promotion. Hardly a small fraction of the money spent in the name of social service in the clubs reaches the needy who are supposed to be benefitted. There is more publicity than service.

More service than publicity is the watchword of Bharat Vikas Parishad. Publicity of Parishad’s activities is necessary, but it has to be watched that self publicity is not carried on in the the guise of Parishad’s publicity. The path the Parishad has undertaken to treat is hard to follow. It requires tremendous discipline, self-control and sacrifice, as well as the development of a missionary spirit, which alone can bring about a change in the people’s thinking and revive their ‘sanskars’ and their faith in the ancient values it our motherland. We have to mould ourselves, our ideas and actions so that we are able to rise above narrow-mindedness and work devotedly for the unity, integrity and freedom of our country, and ethical values broadmindedness and liberalism are predominant in everything we do. Constant awareness of the ideals, aim and objects alone can gaurantee the success of our mission.

If our urge for public service is so easily satisfied by cheep and superficial service, the very purpose of Bharat Vikas Parishad will be defeated and it will not be any different from the Lions and Rotary. It was never the intention of the founders of the Parishad to make it a carbon copy of these clubs. To justify its existence, the Parishad was avenues of genuine service which normally are not available to members of these clubs. It is because of the special avenues of service which the Parishad offers that a large number of Rotarians and Lions of high standing in their respective clubs have been attracted to the Parishad. It is our duty to see that they are not disappointed and they are able to find what they have come to seek. Bharat Vikas Parishad should not be allowed degenerate into an ordinary club and its identity and purity should be preserved at any cost.

भारत विकास परिषद् क्या है?

Dr_Prakshwari_Sharma

डॉ. प्रकाशवती शर्मा
भारत विकास परिषद् क्या है? अक्सर इस प्रश्न का उत्तर देते समय कि मैं आजकल क्या कर रही हूँ, मुझे इस प्रश्न से भी रूबरू होना पड़ता है। और उत्तर में यह कहना कि भारत विकास परिषद् एक गैर सरकारी संस्था (N.G.O) है, परिषद् के बारे में कोई सार्थक उत्तर प्रतीत नहीं होता। कम से कम मुझे। प्रश्न पूछने वाला भी शायद इस उत्तर से संतुष्ट नहीं होता। तो भी कुछ और जिज्ञासा उसके मन में उस उत्तर के बाद उठती दिखाई नहीं देती। किन्तु मुझ में अवश्य यह एक छटपटाहट है, कुछ और कहने की अकुलाहट छोड़ जाता है, और मैं अपने आप से ही समझने की चेष्टा करने लगती हूँ कि भारत विकास परिषद् क्या है?

तीन शब्दों से मिल कर बना यह नाम अपने आप में पूरा दर्शन समेटे है। भारत, जैसा कि नाम से ही विदित होता है मात्र कोई भूगोल नहीं है, यह मात्र पृथ्वी का टुकड़ा नहीं है, सागर और पर्वत श्रृंखलाओं का योग मात्र नहीं है। यह कुछ सहस्राब्दियों का इतिहास मात्र भी नहीं है। यह लक्ष्योन्मुखी तथा प्रक्रियोन्मुखी शब्द है। इस शब्द से ही पता लगता है कि यह मूल्यों की समष्टि की ओर निरन्तर अग्रसर होने का नाम है। और इस समष्टि में `भा´ अर्थात् `प्रकाश´ में `रत´ रहने वाला `भारत´ है। जो निरन्तर ज्ञान की साधना में रत रहता है वही भारत है। प्रकाश ज्ञान का बोधक है और अंधकार अज्ञान का। इसी लिये मैंने कहा कि इस शब्द में उद्देश्य और क्रिया दोनों अन्तर्हित हैं। फिर प्रश्न उठता है ज्ञान क्या है? क्या कुछ जानकारियों को एकत्रित कर उन्हें कण्ठस्थ कर कुछ डिगि्रयाँ प्राप्त करने का नाम ज्ञान है? अथवा धनोपार्जन की क्षमता को अधिक से अधिक प्राप्त करने का नाम ज्ञान है? अथवा भौतिकी के कुछ नियमों की जानकारी ज्ञान है, अथवा कुछ प्रकल्पनाओं के आधार पर मानव मस्तिष्क की तर्क शक्ति के विशद खेल का नाम ज्ञान है। संक्षेप में कहें तो भौतिकी, रसायन एवं गणित की जानकारी का नाम ज्ञान है। पूरा विश्व अस्मरणीय काल से लगा हुआ है मानवशरीर की रचना एवं उसमें उत्पन्न होने वाले विकारों की जानकारी एवं उनका निदान ढूँढ़ने में। किन्तु जैसे-जैसे ढूँढ़ते जाते हैं वैसे-वैसे पहेली और उलझती जाती है। आप कहेंगे भारत विकास परिषद् क्या है? इसे समझाने की बात करते-करते मैं इतना विषयान्तर क्यों कर रही हूँ किन्तु वस्तुत: यह इस प्रश्न के उत्तर का केन्द्र है। भारतीय मनीषा ने इन सभी विद्याओं को अप्रमा की श्रेणी में रखा है।

भारतीय चिन्तन परम्परा यहां भी पाश्चात्य परम्परा से भिन्नता रखती है। भारतीय चिन्तन में ज्ञान के भी दो भेद किये हैं: प्रमा एवं अप्रमा। निश्चित एवं यथार्थ ज्ञान को प्रमा कहते हैं। गणितीय ज्ञान में निश्चितता होती है किन्तु यथार्थता नहीं। अत: वह प्रमा नहीं है। दूसरी ओर प्राकृतिक विज्ञानों में यथार्थता एक सीमा तक होती है किन्तु निश्चितता नहीं होती। संशय, स्मृति, तर्क एवं भ्रम ये चारों अप्रमा (मिथ्या ज्ञान) की श्रेणी के अन्तर्गत रखे गये हैं।

अत: हमारी चिन्तन परम्परा में आत्मतत्व के ज्ञान को ही प्रमा की संज्ञा दी गई है। बाह्य जगत का ज्ञान व्यक्ति को अपने स्वत्व को समझने में सहायक नहीं होता। आत्मज्ञान ऐसा ज्ञान है जिसे जानने के बाद कुछ भी जानना शेष नहीं रहता। यह सत् है अर्थात्, चित् है अर्थात् चैतन्य तथा पूर्ण आनन्द स्वरूप है। जिसे जानने के बाद दु:खों से आत्यंतिक एवं एकांतिक निवृत्ति हो जाती है अर्थात् सदा के लिये और निश्चित् रूप से दु:खों से मुक्ति हो जाती है। यही परम पुरुषार्थ है। सांख्य दर्शन ने मोक्ष को इसी रूप में परिभाषित किया है इसी लिये अपने यहाँ कहा गया है, `सा विद्या या विमुक्तये´ विद्या या ज्ञान वह है जो आप को सभी बंधनों से, क्षुद्र स्वार्थ की सीमाओं से, दु:ख और शोक से मुक्त कर दे। इस ज्ञान की साधना में रत है भारत।

ऐसे भारत की विकास की बात भारत के परिप्रेक्ष्य में ही हो सकती है। हम पश्चिम से उधार लिये हुए विकास के मॉडल की नकल नहीं कर सकते। हमारे लिये विकास का तात्पर्य भौतिक समृद्धि अथवा भौतिक सुख सुविधओं की विपुलता नहीं है। यह सच है कि हमारे अस्तित्व की सब से बाहरी परत भौतिक शरीर है, जो बुद्धि मन तथा इन्द्रिय युक्त है। किन्तु हमारे लिये यह शरीर साधन मूल्य रखता है स्वयं साध्य नहीं है। इसी संदर्भ में शंकराचार्य का एक श्लोक स्मरणीय है:

                                                                        `पूजा ते विषयोपमोग रचना, निद्रा समाधि स्थिति:।
                                                                         संचार: पदयो प्रदक्षिण विधि, स्तोत्राणि सर्वा गिरो।।
                                                                         यद्यत् कर्म करौमि तत्तदखिलम्, शम्भौ तवाराधनम्´

अर्थात् इन्द्रियों द्वारा विषयों का उपभोग भी ऐसा हो मानो वह तुम्हारी ही पूजा है, निद्रा की स्थिति भी तन्द्रा या आलस्य वाली नहीं अपितु समाधि जैसी हो और पद संचलन तुम्हारी प्रदक्षिणा जैसा हो। हे शम्भो मैं जो भी कर्म करूँ वह तुम्हारी आराधना पूजा जैसा हो।´´ कर्म योग की चरम परिणति है। यह और यही हमारे विकास की अवधारणा का चरम लक्ष्य है, यही विकास का भारतीय मॉडल है जहाँ न तो बुद्धि विलास स्वयं साध्य है, न मन और इन्द्रियों की बेलगाम इच्छाओं की शरीर के माध्यम से तृप्ति लक्ष्य है अपितु ये सभी अनुशासित, संयमित हों, आत्मज्ञान की ओर निरन्तर अग्रसित हों ऐसा मनुष्य ही विश्व की समस्त समस्याओं का निदान है।

विकास का यह मॉडल मनुष्य को शेष पशु जगत से पृथक करता है। सम्पूर्ण सृष्टि में मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जिसमें प्रकृति का अतिक्रमण करने की सामर्थ्य  है और इसी लिये उसे मूल्यों के जगत का सृष्टा कहा है और इसी अर्थ में वह स्वतंत्र है अर्थात् वह किसी तंत्र (System) से बंधा नहीं है। वह अपने आप अपना तंत्र हैं। पशु भूख लगने पर, भोजन सामने आते ही उस पर टूट पड़ता है फिर चाहे उसे कितना ही प्रशिक्षित क्यों न किया गया हो। दूसरी ओर भूख न होने पर अथवा रुग्ण होने पर वह कभी भी भोजन की ओर अभिमुख नहीं होता। इसके विपरीत मनुष्य भूख लगने पर भी उपवास रखने का निश्चय कर सकता है तो दूसरी ओर बीमार होने पर भी, भूखा न होने पर भी, सुस्वादु भोजन से लालायित हो भोजन कर सकता है यह सोच कर कि चलो कोई पाचक चूर्ण खा लेंगे। और इसीलिये वह स्वतंत्र है। वह पशु से नीचे गिर सकता है तो देवत्व ही नहीं ईश्वरत्व को भी प्राप्त कर यदि सकता है। परिषद् इसी देव-मानव के निर्माण की प्रक्रिया में रत है। ऐसे मनुष्य की जो `सर्व हिताय लोक हिताय´ समर्पित हो, दूसरे की पीर जिसकी आंखों को नम कर दे। स्वार्थ से परार्थ और फिर परमार्थ तक की यात्रा का नाम विकास है। यही हमारी पहचान है विश्व में, जिसके लिये भारत जाना जाता है। अपनी गरीबी, अपनी बेरोजगारी, अपनी अशिक्षा सबके बावजूद आज भी भारत का जन इसी आदर्श को सर्वोपरि मानता है। इस भारतीय चेतना को फिर से रेखांकित करना, गति देना, इसे विश्व के हर कोने तक पहुंचाना जिस से यह सृष्टि मनोरम बनी रहे, भारत विकास परिषद् का एजेंडा है।

राम और कृष्ण की, बुद्ध और महावीर की, पातंजलि और कणाद की, शंकराचार्य और रामानुज की, रामकृष्ण और विवेकानन्द की एवं दयानन्द की यह पुण्य श्रृंखला अनवरत आगे बढ़ती रहेगी यह हमारा विश्वास और आस्था दोनों ही है। अस्मिता की इसी तीर्थ-यात्रा का नाम भारत विकास परिषद् है और आप और हम इस यात्रा के सहयात्री हैं। रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने एक स्थान पर कहा है :

`अपना प्रश्न पत्र भिन्न है अत: उत्तर भी भिन्न होगा। जीवन और जगत को देखने का हमारा नजरिया भिन्न है और इसीलिये हमारी समस्या दूसरी है, दूसरी ही नहीं व्यापक भी है। अत: निश्चय ही समाधान भी हमारी माटी की गन्ध से ही मिलेंगे और वे समाधान हमारी पहचान होंगे। यदि उन्हें छोड़ दिया तो हम भी यूनान और ग्रीस की तरह पृथ्वी के नक्शे पर गुमनाम हो जायेंगे। आइये हम सब मिल कर प्रभु से प्रार्थना करें कि वह हमें शक्ति दे, भक्ति और समर्पण का भाव दे।´       

लेखिका : भारत विकास परिषद् की पूर्व उपाध्यक्ष  एवं संघ लोक सेवा आयोग की पूर्व सदस्या
(ज्ञान प्रभा, जनवरी-अप्रैल, २००८ अंक से)

Bharat Vikas Parishad - A Complete NGO

Shri Suresh Chandra
Non-Government   Organizations  are  usually   divided  into   three   categories  or generations. The word generation is used because many NGOs start working in the first category and then develop into the second and third categories.

First generation NGOs directly deliver the services to meet an immediate deficiency or shortage experienced by its beneficiary population  such as the  needs for food, health care 

or  shelter. During an emergency such as flood, an earthquake or a war such assistance is urgently required and is delivered according to the funds and staff available with the NGO.

In this category the NGO is the doer while the beneficiary is passive. The relief efforts remain tied to the needs of the people in distress. It is an ad hoc relief and usually no further effect or development is involved. Sometimes the NGOs are formed for this very purpose and are dissolved when the emergency is over.

Second generation NGOs focus their energies on development. This development is of two kinds – first the development of health and educational facilities and strengthening the infrastructure. In villages they introduce improved agriculture practices, impart employment oriented training etc. Mostly they do it with their own resources but with the active help of the village committees, self-help groups etc. Secondly they help in developing the capacities of the people to meet their own needs through self-reliant local action. In this type NGO work there is a partnership between the NGO few towns and small territories. They are unable to work at national or global levels.

The third generations NGOs combine the working strategies of both second and third generation NGOs but they work perpetually and are not constrained by a particular territory. They come forward to help in emergencies like floods, earthquakes, famines etc. They also set-up excellent local units to provide help in medical, educational, environmental fields etc. Going beyond the above two functions, they perform catalytic and foundation like roles along with the role of an operational service provider. The underlying theory of the working of third generation NGOs is grounded in an assumption that a centralized control of resources, prevent essential services from reaching the poor and lead to corruption, delay and exploitation. Moreover, these NGOs try to change the thinking of the people and bring a silent revolution.

Bharat Vikas Parishad is a third generation NGO and much more. It was born out of a first generation NGO, the Citizens Forum, which was formed to assist the 1962 war efforts. It converted itself in the second generation NGO after the war. For four years it was confined to Delhi only. Now that small plant has expanded to become a huge banyan tree. Its branches give local help at the time of disasters like floods, earthquakes, tsunami, super cyclones etc. It is also running excellent institutions like Hospitals, Viklang Kendras, Diagnostic Centers etc. it is also brining mental revolution by imbuing the national spirit and giving Sanskaras to the youth, families and senior citizens. Its branches have spread in almost all the corners of the country. The planning, raising the funds and implementing the projects is done by the branches but under supervision of the centre. 

It has spread its wings to the foreign shores also and is on the way of becoming a global entity.

                                                                                                                               (Editorial in Gyan Pabha, April-June,2009) 

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