प्रारंभिक जीवन
डॉ. सूरज प्रकाश का जन्म पंजाब के गुरुदासपुर जिले के एक गाँव छमल में 27 जून 1920 को हुआ था। उनके पिता का नाम राम सरन महाजन एवं माता का नाम श्रीमती मेला देवी था। उनके पिता एक इन्श्योरेन्स कम्पनी में काम करते थे। उनके परिवार में तीन भाई और दो बहिने थीं जो सब डाक्टर साहब से छोटे थे। महाजन परिवार आर्य समाज का अनुयायी था  एवं समस्त परिवार समाज द्वारा आयोजित उत्सवों में अत्यंत उत्साह से भाग लेता था । 

 

नवयुवक सूरज प्रकाश ने प्रारम्भ से ही एक प्रतिभाशाली, मेधावी एवं परिश्रमी छात्र के रूप में ख्याति अर्जित कर ली थी। अपने सहपाठियों के साथ  उनका व्यवहार मधुर एवं सहयोग पूर्ण था एवं अपने शिक्षकों के लिये वे एक अनुशासित एवं विनयशील विद्यार्थी थे। वे प्रत्येक कक्षा में शीर्ष स्थान प्राप्त करते थे एवं मेट्रीकुलेशन परीक्षा में भी उन्होंने पूरे बोर्ड में प्रथम स्थान प्राप्त किया था। इंटरमीडिएट  साइंस, जीव विज्ञान की परीक्षा उन्होंने दिल्ली बोर्ड से दी एवं इसमें भी सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया। परिणाम स्वरूप दिल्ली सरकार ने उन्हें किंग एडवर्ड मेडिकल कॉलेज लाहौर से एम.बी.बी.एस. करने के लिये भेजा एवं साथ ही छात्रवृत्ति भी प्रदान की। सन् 1938 में उन्होंने एम.बी.बी.एस. कोर्स में प्रवेश किया एवं 1943 में प्रथम श्रेणी तथा विशेष योगयता के साथ इस परीक्षा में उत्तीर्ण हुए। इसी वर्ष वे सर गंगाराम हॉस्पिटल  लाहौर में हाउस सर्जन के पद पर नियुक्त हो गये। तत्पश्चात् उनकी नियुक्ति सर बालक राम मेडिकल कॉलेज लाहौर में प्रवक्ता के पद पर हो गई।

भारत विभाजन व पुर्नवास कार्य
मुहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग पाकिस्तान के लिये आन्दोलन चला रही थी एवं 1946 आते आते यह आन्दोलन हिंसक हो उठा। पंजाब भी इसकी चपेट में आ गया एवं लाहौर तथा उसके आस-पास साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठे। डॉ. सूरज प्रकाश के हृदय पीड़ित में सुप्त सेवा की भावना उभर आई एवं उन्होंने दंगा पीड़ितो की सहायता करनी प्रारंभ कर दी। आततायियों के हाथों से पीड़ितो को बचाने में उन्होंने रात दिन एक कर दिया। तभी 15 अगस्त 1947 को भारत का विभाजन हो गया एवं पंजाब के हिन्दू भारत की ओर पलायन करने लगे। डाक्टर साहब इन सबको सुरक्षित रूप से बाहर निकालने उन्हें, रसद पहुँचाने तथा दंगाईयों से उनके सुरक्षा करने के काम में अत्यंत उत्साह से जुट गये। उनकी ख्याति लाहौर में फैलने लगी एवं वे पाकिस्तान सरकार की आँख की किरकिरी बन गये। उनके सर पर इनाम घोषित कर दिया गया। हालात यहाँ तक बिगड़ गये कि प्रातःकाल जितने लोग सहायता कार्यों के लिये निकलते थे उनमें से अनेक शाम को वापस नहीं आते थे। विवश होकर पंजाब छोड़कर डाक्टर साहब को जम्मू जाना पड़ा।

जम्मू में आकर डॉ. सूरज प्रकाश पाकिस्तान से आये विस्थापितों के पुर्नवास के काम में जुट गये। उन्होंने इस कार्य को जिस कुशलता से निभाया वह अपने में अनूठा था। वास्तव में यहाँ पर उन्होंने लोगों को संगठित करने, कम साधनों से काम चलाने एवं अथक परिश्रम करके लक्ष्य को प्राप्त करने का पाठ पढ़ा। यही अनुभव उनके उस भावी जीवन का आधार बना जब उन्होंने एक छोटी सी संस्था भारत विकास परिषद् की नींव रखी एवं उसे एक विशाल वट वृक्ष में बदल दिया। जम्मू में वे अपने कार्यों में इतने व्यस्त हो गये कि कभी-कभी कई महीनों तक उनके परिवार को भी यह पता नहीं होता था कि वे कहाँ हैं।

डॉ. साहब दिल्ली में
1948 में जम्मू का कार्य समाप्त करके डाक्टर साहब दिल्ली में आ गये एवं अपना क्लिनिक प्रारम्भ कर दिया। प्रारम्भ में उन्होंने अपने एक सहपाठी डॉ. रोशन लाल बहल के साथ सदर थाना रोड पर कार्य प्रारम्भ किया किन्तु बाद में अपना स्वयं का क्लिनिक पहाड़ गंज में खोल लिया। वे स्वयं परिवार सहित निकट ही चूना मंडी में रहा करते थे।

1950 में 30 वर्ष की आयु में डॉक्टर साहब का विवाह कुमारी अयोध्या गुप्ता से हुआ। वे जम्मू कश्मीर के एकाउन्टेन्ट जनरल श्री रामलाल गुप्ता की पुत्री थीं। वे एक विदुषी महिला थीं एवं संगीत तथा नृत्य में डबल एम.ए. थीं तथा आनेररी मजिस्ट्रेट भी थीं। इस दम्पति को 1951 में एक पुत्री उत्पन्न हुई एवं तत्पश्चात् एक पुत्र राकेश का जन्म 1954 में तथा 1960 एवं 1961 में दो पुत्रियों का जन्म हुआ। श्रीमती अयोध्या एक दृढ़ चरित्र वाली धैर्यवान महिला थीं। समाज सेवा को समर्पित डॉक्टर सूरज प्रकाश के लिये जीवन पर्यन्त वे एक शक्तिशाली सम्बल बनी रहीं।

1958 में जब डॉक्टर साहब की आयु 38 वर्ष की थी उनके पिता का निधन हो गया। अपने स्वयं के परिवार के अतिरिक्त अपनी माता, भाईयों बहिनों की समस्त जिम्मेदारी भी उन्हीं के कंधो पर आ गई। उनके पिता जी के जीवनकाल में केवल एक बड़ी बहिन का विवाह हो सका था। अपनी संतान के साथ-साथ डाक्टर साहब ने अपने समस्त भाई-बहिनों का भरण-पोषण बखूबी किया, सबको योग्य बनाया एवं उनके विवाह आदि किये। उनके भाई-बहिन आज भी उनको सन्हेपूर्वक याद करते हैं एवं एक महान् व्यक्ति एवं भारत माता के महान् सपूत के रूप में उनकी समृति संजोये हुए हैं। 

सिटीजन्स काउन्सिल
अक्टूबर 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण के लिये भारत बिल्कुल तैयार नहीं था। भारतीय सैनिकों के पास न तो पर्याप्त हथियार थे एवं न ही हिमालय पर्वत की ऊँचाईयों पर शीत ऋतृ में पहिनने योग्य वस्त्र थे। चीनी सैनिक टिड्डी दल की तरह भारत की उत्तरी सीमाओं में घुस आये एवं भारतीय सेना को भारी क्षति पहुँची। भारतीय सैनिकों का उत्साह बढ़ाने एवं उनकी यथा संभव सहायता करने हेतु डाक्टर सूरज प्रकाश जी ने एक सिटीजन्स काउन्सिल या ‘जनमंच’ की स्थापना की। सिटीजन कौसिंल ने जनता के बीच जाकर सीमा पर लड़ने वाले सैनिकों के लिये ऊनी वस्त्र, गर्म मोजे, स्वेटर, दवाइयां इत्यादि एकत्र की एवं सरकार को भेजनी प्रारम्भ की दीं। जनमंच को अभूतपूर्व सफलता प्राप्त हुई एवं दिल्ली की जनता ने इसके कार्यक्रमों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया।

भारत विकास परिषद् की स्थापना
भारत विकास परिषद् की स्थापना सन् 1963 में हुई थी। यह वर्ष स्वामी विवेकानन्द का जन्म शताब्दी वर्ष भी था। कहा तो यही जाता है कि डा. सूरज प्रकाश जी ने 1962 में चीनी आक्रमण के समय भारतीय सैनिकों की सहायता करने हेतु जिस सिटीजन्स फोरम या जनमंच की स्थापना की थी उसी को 1963 में भारत विकास परिषद् में परिवर्तित कर दिया गया था। किन्तु परिषद् की स्थापना कोई आकस्मिक घटना नहीं थी। इसकी पृष्ठभूमि में एक गहन विचार मंथन एवं देश के सम्पन्न वर्ग की संकीर्ण होती दृष्टि से उत्पन्न वेदना थी। डा. साहब महसूस करते थे कि भारत का उच्च मध्यम वर्ग न केवल आत्म केन्द्रित एवं स्वार्थी होता जा रहा है अपितु समाज से अलग-थलग भी पड़ता जा रहा है। वह देश की समस्याओं के प्रति असंवेदनशील हो गया है एवं अपने हित चिंतन में ही डूबा रहता है। इस संबंध में उनकी चर्चा अपने निकट मित्रों एवं सहयोगियों से होती रहती थी जिसमें उस समय के दिल्ली के अनेक प्रतिभाशाली एवं समाज सेवा में रुचि रखने वाले व्यक्ति सम्मिलित थे। इनमें सबसे प्रमुख लाला हंसराज गुप्ता, बसंत राव ओक, केदारनाथ साहनी तथा अन्य लोग शामिल थे।

डा. सूरज प्रकाश एक स्वप्नदर्शी तो थे ही किन्तु साथ ही इन स्वप्नों को व्यवहारिक रूप देने की सूझ-बूझ एवं क्षमता भी उनमें थी। इस सम्पन्न उच्च मध्यम वर्ग को संगठित करके एक मंच पर लाने की अपनी योजना को डाक्टर साहब ने अपने सहयोगियों के समक्ष रखा जिसे उन सबने सहर्ष स्वीकार किया। इस प्रकार विधिवत् भारत विकास परिषद् की स्थापना हो गई। इसकी प्रथम बैठक कनाट प्लेस स्थित मैरिना होटल में आयोजित की गई जिसमें कुल 20 सदस्य उपस्थित थे। सोसायटीज एक्ट के अन्तर्गत परिषद् के पंजीयन हेतु प्रार्थना पत्र दिया गया एवं दिनांक 10.7.1963 को पंजीयन प्राप्त हुआ। परिषद् के प्रथम सरंक्षक के पद का भार उच्चतम न्यायालय के सेवा निवृत न्यायाधीश न्यायमूर्ति बी.पी.सिन्हा को सोंपा गया । लाला हंसराज प्रथम अध्यक्ष बने एवं डॉ. सूरज प्रकाश प्रथम राष्ट्रीय महामंत्री। स्वामी विवेकानन्द को परिषद् का पथ प्रदर्शक स्वीकार किया गया। इस समय परिषद् का कोई अपना कार्यालय नहीं था एवं वेस्ट पटेल नगर (दिल्ली) स्थित डाक्टर साहब का निवास स्थान ही कार्यालय के रूप में प्रयोग होता था। प्रारम्भ में केवल एक शाखा वेस्ट पटेल नगर में थी एवं वार्षिक सदस्यता शुल्क 10 रुपये था। हर माह एक बैठक होती थी जिसमें किसी एक विद्वान वक्ता को बुलाया जाता था एवं किसी सामयिक समस्या पर भाषण एवं विचार विमर्श होता था। आमंत्रित वक्ताओं में अनेक लोग वामपंथी विचार धारा एवं अन्य प्रकार से विरोधी विचार वाले भी होते थे। वर्तमान में विशाल भारत विकास परिषद् का यह प्रारंभिक लघु रूप था।

कार्य का आरंभिक स्वरूप
प्रथम शाखा की स्थापना के पश्चात् डाक्टर साहब ने परिषद् के कार्यों को विस्तार करना प्रारम्भ किया। 1967 में राष्ट्रीय समूहगान प्रतियोगिता को प्रारम्भ किया गया। इस प्रतियोगिता के नियम उस समय के प्रसिद्ध संगीतकार अनिल विश्वास ने बनाये थे। इस प्रतियोगिता के पारितोषिक वितरण तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. जाकिर हुसैन ने किया था। 1969 में दिल्ली के बाहर देहरादून में परिषद् की दूसरी शाखा स्थापित हुई। डाक्टर साहब काफी समय से इस प्रयत्न में थे कि परिषद् के विचारों को व्यक्त करने वाली एक पत्रिका निकाली जाए। अन्त में 1969 में ही ‘नीति’ नाम की पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया। प्रारम्भ में यह पत्रिका अर्धवार्षिक थी एवं केवल अंग्रेजी में ही निकलती थी। इसमें समाचार या फोटोग्राफ नहीं होते थे, केवल विभिन्न विषयों पर लेख प्रकाशित होते थे। डॉ. सूरज प्रकश स्वयं ही इसके प्रबन्ध सम्पादक थे। परिषद् के समस्त सदस्यों को यह पत्रिका निशुल्क भेजी जाती थी।

1972 में डाक्टर साहब ने एक बहुत महत्वकांक्षी योजना हाथ में ली एवं वह थी छत्रपति शिवाजी की मूर्ति की स्थापना। 1973 की ज्येष्ठ कृष्ण त्रयोदशी को हिन्दूपाद पाद शाही के 300 वर्ष पूरे होने वाले थे एवं इसी तिथि को इस मूर्ति को स्थापित करने का निश्चय किया गया। नई दिल्ली और पुरानी दिल्ली जहाँ मिलती है एवं मिन्टो रोड तथा थामसन रोड का चौराहा है वहीं स्थित पार्क को इस कार्य के लिये चुना गया। 30 फीट ऊँचे विशाल मंच पर घोड़े पर सवार महाराज शिवाजी की 10 फुट ऊँची मूर्ति का निर्माण कराया गया। तत्कालीन राष्ट्रपति वी.वी.गिरी ने निश्चित तिथि पर अनेक मंत्रियों, जिनमें महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री एवं तत्कालीन वित्त मंत्री यशवंत राव चौहान भी शामिल थे, संसद सदस्यों एवं गणमान्य व्यक्तिमयों की उपस्थिति में इस मूर्ति का अनावरण किया। इसी दिन से मिन्टो ब्रिज का नाम शिवाजी ब्रिज एवं रेलवे स्टेशन का नाम शिवाजी रेलवे स्टेशन कर दिया गया।

डॉ. सूरज प्रकाश अदम्य ऊर्जा के स्वामी थे एवं उनकी ऊर्जा तीन भागों में विभाजित हो जाती है। सर्वप्रथम उनका परिवार था जो काफी बड़ा था एवं जिसमें अन्य परिवारों की भाँति ही बच्चों की पढ़ाई, उनकों रोजगार, विवाह एवं सदस्यों की बीमारी इत्यादि से जूझना पड़ता था। डॉक्टर साहब एक कुशल, लोकप्रिय एवं व्यस्त चिकित्सक भी थे। यही मेडिकल प्रैक्टिस उनकी जीविका का साधन थी। उनके रोगियों की सूची में दिल्ली की अनेक प्रख्यात हस्तियाँ शामिल थीं किन्तु अपने परिचितों एवं मित्रों से वे कोई शुल्क नहीं लेते थे। निर्धन रोगी की ओर भी वे उतना ही ध्यान देते थे जितना किसी धनवान की ओर। उन्होंने एक पैथेलोजिकल लेबोरेटरी भी बनवाई थी जिसमें बहुत कम शुल्क लेकर मेडिकल टैस्ट किये जाते थे। उनके एक मित्र डॉ. एन.के.खोसला ने विवेकानन्द मेडिकल मिशन के नाम से एक संस्था बनाई थी जिसमें निःशुल्क नेत्र चिकित्सा, ऑप्रेशन तथा अन्य प्रकार की चिकित्सा की जाती थी। डॉ.  साहब इस संस्था के संरक्षक थें वे एक मूक एवं बधिर विद्यालय के अध्यक्ष भी थे।

1990 में विकलांक सहायता के क्षेत्र में एक और कदम उठाया गया एवं दिलशाद गार्डन दिल्ली में विकलांग सहायता केन्द्र की स्थापना की गई। इस केन्द्र में विकलांगों को कृत्रिम अंग निःशुल्क दिये जाते थे। यह केन्द्र अब अत्यंत विशाल रूप में चल रहा है। अब इन केन्द्रों की संख्या 13 हो गई है।

परिषद् का विस्तार
1963 के पश्चात् डॉक्टर साहब की सबसे अधिक ऊर्जा भारत विकास परिषद् के विस्तार एवं उसमें नये कार्यक्रमों को जोड़ने पर खर्च हो रही थी। पूरे भारत में शाखा विस्तार के लिये वे निरंतर प्रयास करते थे। 1978 में दिल्ली में परिषद् का पहला अखिल भारतीय अधिवेशन आयोजित किया गया। 1979 मे पंजाब तथा हरियाणा में शाखाएँ प्रारम्भ हुई। एक राष्ट्रीय शासी मंडल का गठन किया गया जिसका प्रथम अधिवेशन 1983 में दिल्ली में आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में कुल 31 प्रतिनिधि दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, उड़ीसा इत्यादि से आये थे। इससे स्पष्ट है कि परिषद् की शाखाओं का विस्तार सम्पूर्ण भारतवर्ष में हो रहा था। यह सब डॉक्टर सूरज प्रकाश के कठोर परिश्रम का ही फल था।

इस कठोर मानसिक एवं शारीरिक परिश्रम का दुष्प्रभाव डॉक्टर साहब के स्वास्थ्य पर पड़ना प्रारम्भ हो गया था। 1971 में अर्थात् 51 वर्ष की आयु में उन्हें गुर्दे की पथरी का ऑप्रेशन करना पड़ा। 55 वर्ष की आयु में उन्हें प्रथम बार दिल का दौरा पड़ा। परिवार की दुश्चिन्ताएँ एवं वेदनाएँ भी उनके हिस्से में काफी आईं थीं। सन् 1980 में उन्होंने अपनी सबसे बड़ी पुत्री का विवाह किया एवं उसके दो माह पश्चात् उनकी पत्नी का निधन हो गया। यह एक भयंकर आघात था एवं इसी के परिणाम स्वरूप उन्हें दूसरी बार दिल का दौरा पड़ा एवं वे दो महीने तक रुग्ण शय्या पर पड़े रहे। सन् 1985 में उनकी सबसे बड़ी पुत्री जिसका विवाह 1980 में हुआ था की मृत्यु हो गई। उस समय इस पुत्री की आयु केवल 34 वर्ष थी। 1988 में उन्होंने अपनी सबसे छोटी पुत्री का विवाह करके अपनी अंतिम पारिवारिक जिम्मेदारी से मुक्ति पाई। जनवरी 1991 में उनकी माता जी का देहान्त हुआ।

1991 तक परिषद् की शाखाओं का विस्तार दक्षिण भारत सहित लगभग सम्पूर्ण देश में हो चुका था। ऐसा अनुमान है कि इस वर्ष तक लगभग 135 शाखाएँ स्थापित हो चुकी थी। इस शाखा विस्तार एवं अन्य बैठकों तथा सम्मेलनों में भाग लेने के लिए डॉक्टर साहब निरन्तर यात्राएँ करते थे। प्रायः ही उनका प्रत्येक शनिवार एवं रविवार इसी कार्य हेतु रिजर्व रहता था। 6 फरवरी, 1991 को उदयपुर में परिषद् का अखिल भारतीय अधिवेशन होना निश्चत हुआ था एवं डॉक्टर साहब इसी की तैयारी में व्यस्त थे। इस अधिवेशन के चार दिन पूर्व उन्हें गंभीर हृदयघाट हुआ एवं जो उनके लिये अंतिम आघाट साबित हुआ। उनकी मृत्यु हो गई। इसे पूर्व अपने सहयोगियों एवं परिवारजनों के जोर देने पर वे उदयपुर अधिवेशन के पश्चात् हृदय रोग से संबंधित शल्य चिकित्सा कराने को राजी हो गये थे किन्तु भाग्य का विधान कुछ और ही था एवं इसकी नौबत ही नहीं आ पाई। उनकी मृत्यु के साथ ही भारत विकास परिषद् के इतिहास का एक अध्याय समाप्त हो गया।

डॉक्टर साहब की कार्य निष्ठा
डॉक्टर साहब के प्राण मानों भारत विकास परिषद् में ही बसते थे। उन्होंने 21 जनवरी 1991 को पटना में प्रान्तीय स्तर के सम्मेलन को सम्बोधित किया था। मृत्यु के दो दिन पूर्व उन्होंने मेरठ निवासी एस.पी.जैन जो सेवा निवृत्त आई.ए.एस. हैं एवं नीति के सम्पादक सहित अनेक प्रकार से परिषद् की सेवा कर चुके है के साथ कई घंटे तक परिषद् की भावी योजनाओं पर विचार-विमर्श किया था। ऐसा लगता था कि अभी वे बीस वर्ष और जीवित रहेंगे।

अपने बिगड़ते हुए स्वास्थ्य के बावजूद भी वे देश के दूरस्थ प्रान्तों में फैली हुई शाखाओं में निरन्तर प्रवास करते थे। निर्धारित कार्यक्रमों में पहुँचने का उनका निश्चय कितना दृढ़ था, यह एक घटना से स्पष्ट हो जाता है। उन्हें अम्बाला में एक कार्यक्रम में सम्मिलित होना था किन्तु कुछ व्यवस्तताओं के चलते वे अपने अन्य सहयोगियों के साथ नहीं जा सके। अगले दिन प्रातः काल ट्रेन पकड़ने के लिए जब वे स्टेशन पहुँचे तो ट्रेन में बहुत भीड़ थीं किसी प्रकार एक अनारंक्षित डिब्बे में खड़े होकर सफर करते हुए डॉक्टर साहब अम्बाला पहुँचे एवं मुस्कराते हुए कार्यक्रम में भाग लिया। वे चाहते तो यात्रा रद्द कर सकते थे किन्तु हृदय रोग एवं खराब स्वास्थ्य के बावजूद उन्होंने ऐसा नहीं किया।

इतना व्यस्त रहने के बावजूद डॉक्टर साहब भारत एवं विदेशों में भी यात्रा करने का समय निकाल लेते थे। परिषद् के कार्य से वे वर्ष मे दो बार सम्पूर्ण भारत की यात्रा करते थे। 1968 एवं 1981 में उन्होंने मास्को, लन्दन, यूरोप, कनाडा तथा अमेरिका की यात्राएँ कीं। 1984 में वे राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के साथ मारीशस भी गये थे।

चुम्बकीय व्यक्तित्व
डॉक्टर साहब में नेतृत्व की जन्मजात प्रतिभा थी। चुम्बकीय व्यक्तित्व एवं लक्ष्य के प्रति समर्पण ये नेता के सबसे बड़े गुण होते हैं। डॉक्टर साहब साधारण कार्यकत्र्ता से लेकर विद्वानों, उद्योगपतियों, राजनीतिज्ञों जिससे भी मिलते वह उनसे प्रभावित होता था एवं उनका अपना बन जाता था। राष्ट्रपति डॉ. जाकिर हुसैन, वी.वी.गिरी एवं ज्ञानी जैल सिंह भारत विकास परिषद के कार्यक्रमों में उपस्थित हुए। लाल हंसराज गुप्ता, डॉ. लक्ष्मीमल सिंघवी, न्यायमूर्ति बी.पी.सिन्हा, वी.एम.त्रेहान, श्री जगमोहन जैसे व्यक्तियों को उन्होंने परिषद् से जोड़ा। देश के हर कोने का कार्यकत्र्ता उनसे बातचीत करने को उत्सुक रहता था एवं उन्हें अपना समझता था।

परिषद् के इस उच्च एवं विशाल भवन का निर्माण उन्होंने एक-एक ईट रख कर अपने हाथों से किया था। एक शाखा से प्रारम्भ करके 28 वर्षों में शाखाओं की संख्या 135 से अधिक हो गई थी एवं सदस्यों की संख्या 4000 के लगभग हो चुकी थी। ऐसा नहीं कि उन्हें अपने प्रयासों में सदैव सफलता ही मिली हो। अनेक बार वे शाखाओं एवं प्रान्तों के निमंत्रण पर कार्यक्रमों में पहुँचते थे किन्तु सदस्यों की उपस्थिति नगण्य होती थी। किन्तु ऐसे अवसरों पर भी उन्होंने न तो कभी धैर्य खोया एवं न ही हताश हुए। वे सदैव अपने कार्यकत्र्ताओं का मनोबल बढ़ाते थे एवं हिम्मत से कार्य करते रहने की प्रेरणा देते थे।

डॉक्टर साहब अपने श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देने वाली भाषण कला के स्वामी तो नहीं थे किन्तु अपने विचारों को प्रभावशाली ढंग से व्यक्त करना वे भलि-भाँति जानते थे। जनसमूह के समक्ष एवं व्यक्तिगत बात-चीत में भी वे अपने विचारों को सुन्दर अभिव्यक्ति दे सकते थे। यही गुण उनकी लेखन शैली में भी था। नीति में समय-समय पर वे सटीक लेख लिखते रहते थे एवं अपने विचारों को प्रभावी ढंग से लोगों के समक्ष रख सकने में समर्थ थे।  उन्होंने अपने जीवन काल में एक ऐसी संस्था को जन्म दिया एवं उसका विकास किया जो आज भी उन्हीं के आदर्शों को सामने रखकर निरन्तर प्रगति कर रही है।