Of the country’s total population, 27.8% population lives in urban centers where as 72.20% lives in rural India, which comprises of 638,596 traditional villages.  In the last 60 years, the villages  have contributed enormously to India’s economy, yet the villagers themselves are the most neglected people in not having the basic needs of life, let alone in other areas of development. This has led to migration from rural areas to urban areas and an increase in urban slums. 

Under the Gram / Basti Yojana, each branch is encouraged to adopt either a village or a slum area for its over-all development. So far 700 villages and urban slums have been adopted by branches of the Bharat Vikas Parishad for their development. The members of branches visit the adopted villages / urban slums, understand their problems and try to solve them as far as possible through their own resources and cooperation of villagers. They also help them in getting benefits of different schemes launched by the Government. 

Bharat Vikas Parishad has started a number of Sanskar Kendras to educate illiterate and neglected children and has also set up vocational training centres in the adopted villages and slums. During 2016-17, our branches took up 91 projects in 48 adpted villages. 

है मेरा हिन्दुस्तान कहाँ, वह बसा हमारे गांवों में´ एवं `भारत माता ग्राम वासिनी´ स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व लिखि गई ये पंक्तियां आज भी उतनी ही सच हैं जितनी 62 वर्ष पूर्व थीं। अन्तर इतना ही आया है कि उस समय देश की 85 प्रतिशत आबादी गांवों में रहती थी एवं इस समय 70 प्रतिशत भारतवासी देश के साढ़े चार लाख गांवों में रहते हैं। किन्तु इन गांवों में से आज भी हजारों गांवों में बिजली नहीं पहुँच सकी है एवं हजारों गांव मुख्य मार्गों से जुडे हुए नहीं हैं।

गांवों में रहने वालों में 60 प्रतिशत लोग खेती करके अपनी जीविका का उपार्जन करते हैं। अधिकतर कृषकों के पास बहुत छोटे खेत हैं जिनकी उपज से गुजारा मुश्किल से ही हो पाता है। अत: ग्रामों में गरीबी का साम्राज्य है। संपूर्ण देश की साक्षरता दर 70 प्रतिशत है किन्तु ग्रामों में 50 प्रतिशत लोग भी साक्षर नहीं हैं। कुछ पिछड़े हुए क्षेत्रों में ग्रामीण महिलाओं की साक्षरता दर केवल 10 प्रतिशत ही पाई गई है। डॉक्टर गांवों में नही जाना चाहते अत: स्वास्थ्य सेवाओं का घोर अभाव है।

गांवों की एक बड़ी समस्या यह भी है कि जो भी प्रतिभाशाली नवयुवक पढ़ लिख कर आगे बढ़ते हैं वे सदैव के लिए गांव छोड़ देते हैं। इसे एक प्रकार का प्रतिभा पलायन Brain drain  भी कह सकते हैं। महानगरों में जो मलिन बस्तियाँ बन गई हैं उन्हें भी शहरों में गांवों का विस्तार कह सकते हैं। ग्रामीण आबादी को जब गांवों में रोजगार नहीं मिलता तो वे शहरों की ओर पलायन करती है। महानगरों का प्रशासन उन्हें आवास, स्वच्छता, स्वास्थ्य, शिक्षा इत्यादि की समुचित सुविधाएं प्रदान करने में असमर्थ रहता है। अत: इन बस्तियों के निवासी अमानवीय परिस्थितियों में जीवन व्यतीत करते हैं। ऐसा अनुमान लगाया गया है कि मुम्बई की 45 प्रतिशत एवं दिल्ली की 25 प्रतिशत आबादी ऐसी ही बस्तियों मे रहती है। अन्य महानगरों का भी यही हाल है।

भारत विकास परिषद् देश के सर्वांगीण विकास के लिए प्रतिबद्ध है एवं ग्राम तथा मलिन बस्तियाँ हमारे देश का ही अंग हैं अत: इन दोनों के विकास को राष्ट्रीय प्रकल्प घोषित किया है। इस प्रकल्प में दोनों ही विकल्प सम्मिलित है। किसी एक गांव का संपूर्ण विकास करके उसे आदर्श गांवा बनाना अथवा किसी एक समस्या को हाथ में लेकर उसे हल करना। उदाहरण के लिए किसी गांव के लिये यह संकल्प लिया जा सकता है कि वहां का एक भी बच्चा निरक्षर नहीं रहेगा अथवा वहां प्राथमिक चिकित्सा प्रत्येक व्यक्ति के लिये उपलब्ध कराई जायेगी। मलिन बस्तियों में भी इसी प्रकार के कार्य किये जा सकते हैं।

गांवों के विकास का कार्य सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग यह है कि उसमें उस ग्राम के निवासियों का पूर्ण सहयोग प्राप्त हो। जब तक इन विकास कार्यों के क्रियान्वयन में उनकी भागीदारी नहीं होगी प्रकल्प की सफलता संदिग्ध है। इस लक्ष्य को ध्यान में रखते जिस गांव में विकास कार्य प्रारम्भ करना हो यहां एक समिति या शाखा का गठन बहुत आवश्यक है। हमारी ओर से आर्थिक सहायता तो दी जाये किन्तु कार्य का क्रियान्वयन एवं संचालन इस समिति की ही जिम्मेदारी होनी चाहिये।

यह भी आवश्यक नहीं है कि अपना धन लगाकर कोई नया कार्य ही प्रारम्भ किया जाये। भारत सरकार एवं राज्य सरकारें भी ग्राम विकास के लिए अनेक योजनाएं चला रही हैं। इन्दिरा अवास योजना, प्रधान मंत्री ग्राम सड़क योजना, ग्रामों में शौचालयों का निर्माण, पीने के पानी का प्रबन्ध, प्राइमरी स्कूलों में मिड डे मील इत्यादि अनके योजनाएं सरकारों की ओर से चलाई जा रही है। इस कड़ी में सबसे नई राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारन्टी योजना है। इन योजनाओं में कुछ को सरकार की ओर से सौ प्रतिशत आर्थिक सहायता मिलती है एवं कुछ को आंशिक मदद प्राप्त होती है। शिक्षित एवं जागरूक ग्रामवासियों के सहयोग से यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि इन योजनाओं का क्रियान्वयन ईमानदारी के साथ एवं सुचारु रूप से किया जा रहा हैं

यहाँ पर एक बिन्दु और स्पष्ट कर देना आवश्यक है। गांवों के विकास के लिए भारत विकास परिषद् की ओर से इस समय दो योजनाएं चलाई जा रही हैं – एक समग्र ग्राम विकास योजना एवं दूसरा ग्राम बस्ती विकास योजना। पहली के लिए धन विदेशों से प्राप्त होता है एवं दूसरी के लिए धन का प्रबन्ध शाखाओं को स्वयं करना पड़ता है। अत: इस योजना के लिए समस्त धन शाखाओं को धनी दानदाताओं की सहायता से स्वयं ही जुटाना होगा।

स्वच्छता
1. शौचालयों का निर्माण – ग्रामों में प्राय: ही शौचालयों का अभाव है एवं ग्रामवासी खुले में शौच जाते हैं। शौच के खुले में पड़े रहने से मक्खियों द्वारा बीमारियों के कीटाणु पानी, सब्जी, भोजन इत्यादि को विषाक्त बना देते हैं जिससे पेचिस, दस्त, हैजा, पीलिया जैसी बीमारियाँ फैलती हैं। इससे बचने के लिए प्रत्येक घर में शौचालय का निर्माण आवश्यक है। सरकारी सहायता से दो गढ़े वाले शौचालयों का निर्माण कराया जा सकता है जिसकी लागत मात्र 2000 से 2500 रुपये तक आती है एवं जिसमें 75 प्रतिशत तक सरकारी अनुदान मिलता है। ग्रामवासियों को यह शिक्षा देना भी आवश्यक है कि वे खुले में शौच न जायें एवं शौच के पश्चात् साबुन से हाथ धोयें।

2. गन्दे पानी की निकासी – गांव में प्राय: ही गन्दे पानी की निकासी का प्रबन्ध नहीं होता एवं यह पानी गलियों में बहता रहता है। इससे केवल गन्दगी ही नहीं फैलती अपितु मच्छर भी पैदा होते हैं जो मलेरिया का कारण बनते हैं। पक्की नालियां बनाकर इस गन्दे पानी से केवल छुटकारा ही नहीं मिलेगा अपितु इसका उपयोग खेतों की सिंचाई में भी हो सकेगा।

स्वस्थ्य
स्वच्छता का स्वास्थ्य से घनिष्ठ संबंध है किन्तु स्वास्थ्य के लिये कुछ और उपाय भी करने होते हैं। ये निम्न प्रकार हो सकते हैं:
1. औषधालय का प्रबन्ध – यह गांवों की सबसे बड़ी आवश्यकता है। सरकारी स्वास्थ्य केन्द्रों पर प्राय: ही डॉक्टर एवं दवाईयां गायब रहते हैं। यदि स्थायी चिकित्सक का प्रबन्ध न हो सके तो सप्ताह में एक या दो दिन डॉक्टर के बैठने की व्यवस्था की जा सकती है। दवाईयां भी नाम मात्र मूल्य पर दी जा सकती हैं।
2. नेत्र चिकित्सा तथा अन्य प्रकार के शिविर – समय-समय पर नेत्र चिकित्सा, विकलांग सहायता, टीकाकरण आदि का आयोजन किया जा सकता है।

शिक्षा
स्वास्थ्य के पश्चात् शिक्षा ही सर्वाधिक महत्व पूर्ण क्षेत्र है जहां अनेक किये जा सकते हैं। इनका संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है:-
1. साक्षरता अभियान एवं प्राथमिक शिक्षा – गोद लिये हुए गांव में यह सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि स्कूल जाने योग्य आयु 6 वर्ष से 14 वर्ष का प्रत्येक बालक स्कूल जा रहा है। समिति के सदस्यों की सहायता से ऐसे बच्चों की सूची बनाकर उन्हें स्कूल लाने का प्रयत्न होनी चाहिये। कन्याओं को साक्षर बनाने का विशेष प्रयास करना चाहिए।
2. प्रौढ़ों को साक्षर बनाने हेतु सायंकालीन कक्षाएं चलाई जा सकती है।
3. रोजगार परक प्रशिक्षण – ग्रामीण युवकों को भयंकर बेरोजगारी का सामना करना पड़ रहा है। गांवों में खेत में मजदूरी के अतिरिक्त कोई काम उपलब्ध नहीं होता। बी.ए., एम.ए. की डिग्रियां नौकरी नही दिला पातीं। ऐसी दशा में टी.वी. मरम्मत, ईलैक्ट्रिशियन, मोटर मिकैनिक इत्यादि की ट्रैनिंग रोजगार के अच्छे साधन बन सकते हैं। इनके लिये प्रत्येक जिले में सरकार की ओर से खोले गये आई.टी.आई. की सहायता ली जा सकती है। कुछ प्रतिभाशाली युवकों को कम्प्यूटर का प्रतिशक्षण भी दिलाया जा सकता है।

पर्यावरण, समरसता एवं अन्य कार्य
उपरोक्त के अतिरिक्त कुछ अन्य कार्य भी हाथ में लिये जा सकते हैं।
1. वृक्षारोपण एवं वनों की रक्षा – वर्षा ऋतु में वृक्षारोपण का कार्य ग्राम वासियों के सहयोग से किया जा सकता है। ये वृक्ष जीविंत रहें इसका भी समुचित प्रबन्ध किया जाना चाहिये। ग्राम वासियों मे ऐसी चेतना जाग्रत की जानी चाहिए कि वनों के संरक्षण पर ही हमारा जीवन निर्भर करता है एवं इसकी रक्षा करना हमारा धर्म है।

2. समरसता – ऐसा प्रयत्न किया जाये कि प्रमुख त्यौहार सभी जातियां एवं संप्रदाय मिलजुल कर मनायें। इससे आपसी सौहार्द में वृद्धि होगी।

मलिन बस्तियों में किये जाने वाले कार्य
मलिन बस्तियों में किये जाने वाले कार्य ग्रामों की अपेक्षा सीमित होते हैं एवं वहां एक सुविधा यह भी है कि से बस्तियां शहर का ही एक भाग होती हैं। वहां कार्य करने के लिये कहीं दूर नहीं जाना पड़ता। किन्तु वहां कोई शाखा या समिति बनाना कठिन होता है क्योंकि वहां के निवासी दिन भर मजदूरी के कार्य में लगे रहते हैं। किन्तु फिर भी यह प्रयत्न किया जाना चाहिए कि बस्ती वासियों का उन कार्यों के क्रियान्वयन में सक्रिय सहयोग प्राप्त हो सके।

मलिन बस्तियों में निम्न कार्य किये जा सकते हैं:
1. बच्चों की साक्षरता – मलिन बस्तियों में रहने वाले बच्चे या तो दिन भर गलियों में खेलते हैं या कुड़े में से प्लास्टिक बीनते हैं। क्योंकि यह उनकी जीविका का साधन है अत: वे स्वयं एवं उनके माता-पिता भी इस काम को छोड़ना नहीं चाहेंगे। अत: इनको साक्षर बनाने का सर्वोत्तम उपाय यह है कि एक या दो शिक्षकों वाली सायंकालीन पाठशालाएं चलाई जायें। इन कक्षाओं में उन्हें साफ सफाई से रहने एवं नैतिक शिक्षा भी दी जा सकती है।

2. प्रौढ़ शिक्षा – यदि संभव हो सके तो प्रौढ़ लोगों के लिए रात्रि कालीन कक्षाएं लगाई जा सकती हैं। क्योंकि वयस्क लोग दिन भर मजदूरी करते हैं अत: वहां रात्रि कक्षाएं ही कामयाब हो सकती हैं।

3. स्वास्थ्य एवं चिकित्सा – बड़े शहरों में डॉक्टर एवं दवाई दोनों ही बहुत मंहगी हैं। अत: यह प्रकल्प मलिन बस्तियों के लिए सबसे महत्वपूर्ण है। इसके लिए यदि पूर्ण कालिक नहीं तो अंश कालिक चिकित्सक का सप्ताह में दो या तीन दिन बैठने का प्रबन्ध किया जा सकता है।

4. त्यौहारों का आयोजन – बस्तियों के रहने वालों के साथ कुछ त्यौहार मिलजुल कर मनाये जा सकते हैं। होली, दिवाली कुछ इसी तरह के त्यौहार हैं। रक्षाबन्धन पर राखी बांधने बंधवाने का आयोजन करना भी उचित रहेगा। इससे आपसी सौहार्द एवं अपनापन बढ़ेगा। 

है मेरा हिन्दुस्तान कहाँ, वह बसा हमारे गांवों में´ एवं `भारत माता ग्राम वासिनी´ स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व लिखि गई ये पंक्तियां आज भी उतनी ही सच हैं जितनी 62 वर्ष पूर्व थीं। अन्तर इतना ही आया है कि उस समय देश की 85 प्रतिशत आबादी गांवों में रहती थी एवं इस समय 70 प्रतिशत भारतवासी देश के साढ़े चार लाख गांवों में रहते हैं। किन्तु इन गांवों में से आज भी हजारों गांवों में बिजली नहीं पहुँच सकी है एवं हजारों गांव मुख्य मार्गों से जुडे हुए नहीं हैं।

गांवों में रहने वालों में 60 प्रतिशत लोग खेती करके अपनी जीविका का उपार्जन करते हैं। अधिकतर कृषकों के पास बहुत छोटे खेत हैं जिनकी उपज से गुजारा मुश्किल से ही हो पाता है। अत: ग्रामों में गरीबी का साम्राज्य है। संपूर्ण देश की साक्षरता दर 70 प्रतिशत है किन्तु ग्रामों में 50 प्रतिशत लोग भी साक्षर नहीं हैं। कुछ पिछड़े हुए क्षेत्रों में ग्रामीण महिलाओं की साक्षरता दर केवल 10 प्रतिशत ही पाई गई है। डॉक्टर गांवों में नही जाना चाहते अत: स्वास्थ्य सेवाओं का घोर अभाव है।

गांवों की एक बड़ी समस्या यह भी है कि जो भी प्रतिभाशाली नवयुवक पढ़ लिख कर आगे बढ़ते हैं वे सदैव के लिए गांव छोड़ देते हैं। इसे एक प्रकार का प्रतिभा पलायन Brain drain  भी कह सकते हैं। महानगरों में जो मलिन बस्तियाँ बन गई हैं उन्हें भी शहरों में गांवों का विस्तार कह सकते हैं। ग्रामीण आबादी को जब गांवों में रोजगार नहीं मिलता तो वे शहरों की ओर पलायन करती है। महानगरों का प्रशासन उन्हें आवास, स्वच्छता, स्वास्थ्य, शिक्षा इत्यादि की समुचित सुविधाएं प्रदान करने में असमर्थ रहता है। अत: इन बस्तियों के निवासी अमानवीय परिस्थितियों में जीवन व्यतीत करते हैं। ऐसा अनुमान लगाया गया है कि मुम्बई की 45 प्रतिशत एवं दिल्ली की 25 प्रतिशत आबादी ऐसी ही बस्तियों मे रहती है। अन्य महानगरों का भी यही हाल है।

भारत विकास परिषद् देश के सर्वांगीण विकास के लिए प्रतिबद्ध है एवं ग्राम तथा मलिन बस्तियाँ हमारे देश का ही अंग हैं अत: इन दोनों के विकास को राष्ट्रीय प्रकल्प घोषित किया है। इस प्रकल्प में दोनों ही विकल्प सम्मिलित है। किसी एक गांव का संपूर्ण विकास करके उसे आदर्श गांवा बनाना अथवा किसी एक समस्या को हाथ में लेकर उसे हल करना। उदाहरण के लिए किसी गांव के लिये यह संकल्प लिया जा सकता है कि वहां का एक भी बच्चा निरक्षर नहीं रहेगा अथवा वहां प्राथमिक चिकित्सा प्रत्येक व्यक्ति के लिये उपलब्ध कराई जायेगी। मलिन बस्तियों में भी इसी प्रकार के कार्य किये जा सकते हैं।

गांवों के विकास का कार्य सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग यह है कि उसमें उस ग्राम के निवासियों का पूर्ण सहयोग प्राप्त हो। जब तक इन विकास कार्यों के क्रियान्वयन में उनकी भागीदारी नहीं होगी प्रकल्प की सफलता संदिग्ध है। इस लक्ष्य को ध्यान में रखते जिस गांव में विकास कार्य प्रारम्भ करना हो यहां एक समिति या शाखा का गठन बहुत आवश्यक है। हमारी ओर से आर्थिक सहायता तो दी जाये किन्तु कार्य का क्रियान्वयन एवं संचालन इस समिति की ही जिम्मेदारी होनी चाहिये।

यह भी आवश्यक नहीं है कि अपना धन लगाकर कोई नया कार्य ही प्रारम्भ किया जाये। भारत सरकार एवं राज्य सरकारें भी ग्राम विकास के लिए अनेक योजनाएं चला रही हैं। इन्दिरा अवास योजना, प्रधान मंत्री ग्राम सड़क योजना, ग्रामों में शौचालयों का निर्माण, पीने के पानी का प्रबन्ध, प्राइमरी स्कूलों में मिड डे मील इत्यादि अनके योजनाएं सरकारों की ओर से चलाई जा रही है। इस कड़ी में सबसे नई राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारन्टी योजना है। इन योजनाओं में कुछ को सरकार की ओर से सौ प्रतिशत आर्थिक सहायता मिलती है एवं कुछ को आंशिक मदद प्राप्त होती है। शिक्षित एवं जागरूक ग्रामवासियों के सहयोग से यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि इन योजनाओं का क्रियान्वयन ईमानदारी के साथ एवं सुचारु रूप से किया जा रहा हैं

यहाँ पर एक बिन्दु और स्पष्ट कर देना आवश्यक है। गांवों के विकास के लिए भारत विकास परिषद् की ओर से इस समय दो योजनाएं चलाई जा रही हैं – एक समग्र ग्राम विकास योजना एवं दूसरा ग्राम बस्ती विकास योजना। पहली के लिए धन विदेशों से प्राप्त होता है एवं दूसरी के लिए धन का प्रबन्ध शाखाओं को स्वयं करना पड़ता है। अत: इस योजना के लिए समस्त धन शाखाओं को धनी दानदाताओं की सहायता से स्वयं ही जुटाना होगा।

स्वच्छता
1. शौचालयों का निर्माण – ग्रामों में प्राय: ही शौचालयों का अभाव है एवं ग्रामवासी खुले में शौच जाते हैं। शौच के खुले में पड़े रहने से मक्खियों द्वारा बीमारियों के कीटाणु पानी, सब्जी, भोजन इत्यादि को विषाक्त बना देते हैं जिससे पेचिस, दस्त, हैजा, पीलिया जैसी बीमारियाँ फैलती हैं। इससे बचने के लिए प्रत्येक घर में शौचालय का निर्माण आवश्यक है। सरकारी सहायता से दो गढ़े वाले शौचालयों का निर्माण कराया जा सकता है जिसकी लागत मात्र 2000 से 2500 रुपये तक आती है एवं जिसमें 75 प्रतिशत तक सरकारी अनुदान मिलता है। ग्रामवासियों को यह शिक्षा देना भी आवश्यक है कि वे खुले में शौच न जायें एवं शौच के पश्चात् साबुन से हाथ धोयें।

2. गन्दे पानी की निकासी – गांव में प्राय: ही गन्दे पानी की निकासी का प्रबन्ध नहीं होता एवं यह पानी गलियों में बहता रहता है। इससे केवल गन्दगी ही नहीं फैलती अपितु मच्छर भी पैदा होते हैं जो मलेरिया का कारण बनते हैं। पक्की नालियां बनाकर इस गन्दे पानी से केवल छुटकारा ही नहीं मिलेगा अपितु इसका उपयोग खेतों की सिंचाई में भी हो सकेगा।

स्वस्थ्य
स्वच्छता का स्वास्थ्य से घनिष्ठ संबंध है किन्तु स्वास्थ्य के लिये कुछ और उपाय भी करने होते हैं। ये निम्न प्रकार हो सकते हैं:
1. औषधालय का प्रबन्ध – यह गांवों की सबसे बड़ी आवश्यकता है। सरकारी स्वास्थ्य केन्द्रों पर प्राय: ही डॉक्टर एवं दवाईयां गायब रहते हैं। यदि स्थायी चिकित्सक का प्रबन्ध न हो सके तो सप्ताह में एक या दो दिन डॉक्टर के बैठने की व्यवस्था की जा सकती है। दवाईयां भी नाम मात्र मूल्य पर दी जा सकती हैं।

2. नेत्र चिकित्सा तथा अन्य प्रकार के शिविर – समय-समय पर नेत्र चिकित्सा, विकलांग सहायता, टीकाकरण आदि का आयोजन किया जा सकता है।

शिक्षा
स्वास्थ्य के पश्चात् शिक्षा ही सर्वाधिक महत्व पूर्ण क्षेत्र है जहां अनेक किये जा सकते हैं। इनका संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है:-
1. साक्षरता अभियान एवं प्राथमिक शिक्षा – गोद लिये हुए गांव में यह सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि स्कूल जाने योग्य आयु 6 वर्ष से 14 वर्ष का प्रत्येक बालक स्कूल जा रहा है। समिति के सदस्यों की सहायता से ऐसे बच्चों की सूची बनाकर उन्हें स्कूल लाने का प्रयत्न होनी चाहिये। कन्याओं को साक्षर बनाने का विशेष प्रयास करना चाहिए।

2. प्रौढ़ों को साक्षर बनाने हेतु सायंकालीन कक्षाएं चलाई जा सकती है।

3. रोजगार परक प्रशिक्षण – ग्रामीण युवकों को भयंकर बेरोजगारी का सामना करना पड़ रहा है। गांवों में खेत में मजदूरी के अतिरिक्त कोई काम उपलब्ध नहीं होता। बी.ए., एम.ए. की डिग्रियां नौकरी नही दिला पातीं। ऐसी दशा में टी.वी. मरम्मत, ईलैक्ट्रिशियन, मोटर मिकैनिक इत्यादि की ट्रैनिंग रोजगार के अच्छे साधन बन सकते हैं। इनके लिये प्रत्येक जिले में सरकार की ओर से खोले गये आई.टी.आई. की सहायता ली जा सकती है। कुछ प्रतिभाशाली युवकों को कम्प्यूटर का प्रतिशक्षण भी दिलाया जा सकता है।

पर्यावरण, समरसता एवं अन्य कार्य
उपरोक्त के अतिरिक्त कुछ अन्य कार्य भी हाथ में लिये जा सकते हैं।
1. वृक्षारोपण एवं वनों की रक्षा – वर्षा ऋतु में वृक्षारोपण का कार्य ग्राम वासियों के सहयोग से किया जा सकता है। ये वृक्ष जीविंत रहें इसका भी समुचित प्रबन्ध किया जाना चाहिये। ग्राम वासियों मे ऐसी चेतना जाग्रत की जानी चाहिए कि वनों के संरक्षण पर ही हमारा जीवन निर्भर करता है एवं इसकी रक्षा करना हमारा धर्म है।

2. समरसता – ऐसा प्रयत्न किया जाये कि प्रमुख त्यौहार सभी जातियां एवं संप्रदाय मिलजुल कर मनायें। इससे आपसी सौहार्द में वृद्धि होगी।

मलिन बस्तियों में किये जाने वाले कार्य
मलिन बस्तियों में किये जाने वाले कार्य ग्रामों की अपेक्षा सीमित होते हैं एवं वहां एक सुविधा यह भी है कि से बस्तियां शहर का ही एक भाग होती हैं। वहां कार्य करने के लिये कहीं दूर नहीं जाना पड़ता। किन्तु वहां कोई शाखा या समिति बनाना कठिन होता है क्योंकि वहां के निवासी दिन भर मजदूरी के कार्य में लगे रहते हैं। किन्तु फिर भी यह प्रयत्न किया जाना चाहिए कि बस्ती वासियों का उन कार्यों के क्रियान्वयन में सक्रिय सहयोग प्राप्त हो सके।

मलिन बस्तियों में निम्न कार्य किये जा सकते हैं:
1. बच्चों की साक्षरता – मलिन बस्तियों में रहने वाले बच्चे या तो दिन भर गलियों में खेलते हैं या कुड़े में से प्लास्टिक बीनते हैं। क्योंकि यह उनकी जीविका का साधन है अत: वे स्वयं एवं उनके माता-पिता भी इस काम को छोड़ना नहीं चाहेंगे। अत: इनको साक्षर बनाने का सर्वोत्तम उपाय यह है कि एक या दो शिक्षकों वाली सायंकालीन पाठशालाएं चलाई जायें। इन कक्षाओं में उन्हें साफ सफाई से रहने एवं नैतिक शिक्षा भी दी जा सकती है।

2. प्रौढ़ शिक्षा – यदि संभव हो सके तो प्रौढ़ लोगों के लिए रात्रि कालीन कक्षाएं लगाई जा सकती हैं। क्योंकि वयस्क लोग दिन भर मजदूरी करते हैं अत: वहां रात्रि कक्षाएं ही कामयाब हो सकती हैं।

3. स्वास्थ्य एवं चिकित्सा – बड़े शहरों में डॉक्टर एवं दवाई दोनों ही बहुत मंहगी हैं। अत: यह प्रकल्प मलिन बस्तियों के लिए सबसे महत्वपूर्ण है। इसके लिए यदि पूर्ण कालिक नहीं तो अंश कालिक चिकित्सक का सप्ताह में दो या तीन दिन बैठने का प्रबन्ध किया जा सकता है।

4. त्यौहारों का आयोजन – बस्तियों के रहने वालों के साथ कुछ त्यौहार मिलजुल कर मनाये जा सकते हैं। होली, दिवाली कुछ इसी तरह के त्यौहार हैं। रक्षाबन्धन पर राखी बांधने बंधवाने का आयोजन करना भी उचित रहेगा। इससे आपसी सौहार्द एवं अपनापन बढ़ेगा।